Tuesday, January 31, 2006

'ओउम' की शक्ति


'ओउम' परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है, जिसने सारे संसार की रचना की है. वह अजर है, अमर है, सर्वव्यापक है, रक्षक है. इसमें परमात्मा के अनेक रूपों और गुणों को प्रकट करने की शक्ति है. 'ओउम' शब्द में तीन अक्षर है- 'अ', 'उ' और 'म'.

ये तीन अक्षर परमात्मा के तीन महान् गुणों को प्रकट करते है. 'अ' परमात्मा की उस शक्ति का वाचक है, जिससे वह संसार को उत्पन्न करता है. 'उ' परमात्मा की उस शक्ति का नाम है, जिससे वह संसार की रक्षा करता है. 'म' परमात्मा की उस शक्ति का परिचायक है, जिसके माध्यम से वह प्रलय करती है. इस तरह 'अ' ब्रह्मा का वाचक है , 'उ' विष्णु का और 'म' महेश का. जब हम 'ओउम' का उच्चारण करते हैं, तब हमारी वाणी भगवान के इन गुणों को प्रकट करती है.

'अ' के उच्चारण के लिए हमें अपना मुंह खोलना पड़ता है. इसी तरह यह सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है. 'उ' का उच्चारण करते समय मुंह खुला रहता है और होंठ मूड़े हुए होते है. यह धारण, रक्षण और पालन का सूचक है. 'म' का उच्चारण करते समय होंठ बंद करने पड़ते है. यह किसी तत्व की समाप्ति को दर्शाता है.

इस तरह 'ओउम' का उच्चारण या जाप करते समय हम न सिर्फ यह जानते हैं कि परमात्मा संसार का उत्पादक, रक्षक और प्रलयंकर है, बल्कि यह भी जानते है कि प्रकृति का यह नियम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता चला जाएगा.

Friday, January 27, 2006

वो जलता रहा, चैनलों का कैमरा चलता रहा

भारत में खबरिया चैनलों की शैशवास्था का यह चरम उदाहरण था। पटियाला के एक व्यापारी द्वारा आत्मदाह और इस आत्मदाह के वीभत्स दृश्य का लाइव प्रसारण! फूलों की माला से लकदक व्यापारी। चारों तरफ से तमाशा देख रहे लोगों का घेरा। इस भीड़ में कई चैनल वाले और पुलिस वाले भी। व्यापारी ने खुद पर पेट्रोल डाला। माचिस निकाली और आग लगा ली। धधकती आग में व्यापारी जलने लगा। चैनलों को अद्भुत मसाला मिल गया। मौत के मुंह में खुद को ढकलते व्यक्ति के लाइव प्रसारण का मौका हमेशा नहीं मिलता! मसालेदार खबरों की तलाश में लगे रहने वाले चैनलों के लिए इससे अच्छा मसाला क्या हो सकता है?

व्यापारी मर गया। लेकिन कोई यह पूछने वाला नहीं कि जब वह ऐसी हरकत कर रहा था तो किसी ने उसे रोका क्यों नहीं? अगर आम जनता को इतनी अक्ल नहीं थी तो प्रबुद्ध मीडिया में से किसी ने उसे रोका क्यों नहीं? वे बस मजा लेकर उसे देखते रहे और भावनाओं में बह गया वह बेचारा व्यापारी चैनलों के कैमरे देखकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो गया। इसके बाद का अंदाजा शायद उसे नहीं रहा होगा। खबरिया चैनलों को थोड़ी देर के लिए ही सही अपनी जिम्मेदारी भी समझ में आई। उनमें से एक ने आत्मदाह के लाइव प्रसारण को दिखाते हुए यह भी दिखाया- 'ये दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं।' इसे खबरिया चैनलों का उपकार ही समझिए कि उन्होंने इस वीभत्स दृश्य को दिखाने के साथ-साथ पट्टिका पर यह भी लिख दिया, लेकिन दिखाया बार बार। लगातार।

Thursday, January 26, 2006

गणतंत्र नहीं, 'गन' तंत्र दिवस कहिए

आज दिल्ली में गणतंत्र दिवस मनाया गया। हालांकि जैसे यह मना, उससे तो मैं एकदम कन्फ्यूज गया हूं कि ई गणतंत्र दिवस था कि 'गन' तंत्र दिवस। हर तरफ बंदूकों का साया! ये कैसा गणतंत्र है भाई, जिसमें राष्ट्र गौरव का पर्व भी 'गन' के दम मनाया जाए? ये तो आतंकियों की 'गन' को रोकने के लिए पुलिस द्वारा 'गन' के बल पर 'गण' पर शासन की बात हो गई। मतलब गणतंत्र की एक दूसरा ही परिभाषा हो गई यह तो!

क्या बोले, यह सब सुरक्षा के लिए जरूरी है? हां, ठीक ही कहते हैं, लेकिन तब इतनी नौटंकी करने की जरूरत क्या है? हमारी मानिए, जो सब राजपथ पर करते हैं, उसके बदले में राष्ट्रपति भवन में झंडा फहराइए, कम से कम 26 जनवरी को जनता दिल्ली की सड़कों पर बेरोक-टोक घूमकर गणतंत्र दिवस का जश्न तो मना सकेगी। क्या है कि आप जिस 'गण' के लिए गणतंत्र दिवस मनाने की बात करते हैं, वह तो उस दिन सबसे ज्यादा पराधीन और भयभीत रहती है। बस बंद, मेट्रो बंद, न इंडिया गेट पर आइसक्रीम खा सकते हैं और न ही चांदनी चौक पर चाट, फिर काहे का 'गण' और कैसी गणतंत्र की ठाठ! यह तो वही बात हो गई कि दूल्हा अपने ब्याह में ही न जाए और बराती ब्याह की खुशी में नाच-नाचकर बेहोश होते रहे।

वैसे, यहां के लोग भी कम नहीं हैं। अगर खाली वे नौकर और किराएदार का वेरिफेकेशन करा ले, तो पुलिस की टेंशन आधी हो जाए, लेकिन सब अपने को रॉबर्ट बढ़ेरा ही न समझता है। सेक्युरेटी चेकिंग में भी शर्म आती है! पचास रुपए जिसकी पॉकेट में रहते हैं, वह बस में ऐसे संभलकर रहेगा, जैसे आसपास सब पॉकेटमार ही हो, लेकिन वही चचा जान और खाला जान अपने किराएदार के आतंकी साबित होने पर ऐसे आंख का बटन निकालेंगे, जैसे उनको आदमी पहचानने ही नहीं आता! रखेंगे 'सीधा-सादा' नेपाली नौकर, जो सस्ता होता है और चांय-चूं नहीं करता है, लेकिन पुलिस को नहीं बताएंगे। एक दिन जब वह 'टेढ़ा' हो जाएगा और टेंटुआ दबाकर सब माल ले जाएगा सीमापार, तब सब मिलके पुलिस का पोस्टमार्टम करेंगे!

... और पुलिस? पूछिए मत। 364 दिन अगर ड्यूटी को 'गोली देकर', वसूली में व्यस्त रहिएगा, तो 365वें दिन गोली-बंदूक के बल पर ही न शांति बनाइएगा, चाहे वह राष्ट्रीय पर्व ही क्यों न हो। कर्फ्यू लगाकर अगर आप कहते हैं कि '26 जनवरी शांति पूर्वक निबट गया', तो लानत है भाई आप पर।

... और नेता? हमारा तो मानना है कि यह पर्व बूटा सिंह जैसे 'राजनेताओं' को ज्यादा आनंद देता है, जो सुप्रीम कोर्ट में तो लोकतंत्र का खलनायक है, लेकिन कहता है मैं इस बार 26 जनवरी पर गांधी मैदान में 'सलामी लूंगा'। गौर कीजिएगा, उन्होंने यह नहीं कहा कि गांधी मैदान में तिरंगे को 'सलामी दूंगा'।
जय हो लोकतंत्र की! जय हो इसके खेवनहारों की!!
Article: PRJ

Tuesday, January 24, 2006

साइबर स्पेस पर शिकंजा

  • अभी हाल में सर्च इंजन गूगल ने अपनी वीडियो साइट पर 'ब्लफ मास्टर' और 'बंटी और बबली' जैसी लेटेस्ट बॉलिवुड फिल्में मुफ्त में बांटनी शुरू कर दीं। यह खुलेआम कॉपीराइट की डकैती थी, जिसके खिलाफ यशराज फिल्म ने कानूनी कार्रवाई की धमकी दी।
  • कुछ अरसा पहले एक इंटरनेट साइट सीनेट ने एक धमाका किया। उसने गूगल के सीईओ एरिक श्मिड्ट के निजी जीवन, राजनीतिक दान, रिहाइश और तनख्वाह के ब्यौरे प्रकाशित कर दिए। यह सारी जानकारी उसने गूगल पर सर्च के जरिए ही निकाली, यह दिखाने के लिए कि गूगल लोगों की जिंदगी के बारे में कितना ज्यादा जानता है।
  • पिछले दिनों नेट पर 'एपिक 2014' नाम से आठ मिनट का एक वीडियो रिलीज हुआ। यह आज से आठ साल बाद की एक फेंटेसी है, जिसमें दिखाया गया है कि कैसे गूगल और अमेजन के एक साझा अवतार 'गूगलेजोन' ने मीडिया पर कब्जा कर लिया है, जो हर पाठक के लिए उसकी निजी पसंद और जरूरत के हिसाब से न्यूज, एंटरटेनमेंट और जानाकरी का एक पैकेज मुहैया कराता है। यह सारा मैटर इंटरनेट से जोड़-तोड़ कर गूगलेजोन के सॉफ्टवेयर रोबोट तैयार करते हैं और इस पर्सनल मीडिया ने मास मीडिया को तबाह करके रख दिया है। नतीजतन न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे ताकतवर अखबार नेट से हटने को मजबूर हो गए हैं।
पश्चिम में हंगामा मचा हुआ है और इस हंगामे के केन्द में है गूगल। वह सर्च इंजन जो आज इंटरनेट पर जानकारी की तलाश का सबसे बड़ा मीडियम बन चुका है, इस कदर कि इंटरनेट की कल्पना गूगल के बिना नहीं की जा सकती। दुनिया भर में नेट पर हर रोज जो 25 करोड़ खोजें होती हैं, उनका आधा गूगल के हिस्से आता है। भारत में 90 परसेंट, यानी तीन करोड़ नेट खोजों पर गूगल की छाप लगती है। सिर्फ आठ बरस में गूगल ने याहू और एमएसएन जैसे सर्च इंजनों को दूर पीछे छोड़ दिया है। वह इंटरनेट का चौधरी बन चुका है।

अभी हाल तक गूगल को इंटरनेट की आत्मा कहा जा रहा था। पूछा जा रहा था कि क्या वह साइबर स्पेस का भगवान है? माना जा रहा था कि उसने लाखों (और शायद करोड़ों) वेब पेजों-पोर्टालों के इस विश्व व्यापी बीहड़ में ऐसा रास्ता खोल दिया है कि सब कुछ सुगम लगने लगा है। नेटिजन के लिए गूगल मनपसंद जानकारी पाने का सबसे पहला जरिया बन गया, क्योंकि उसके सर्च इंजन का कोई जवाब नहीं था।

लेकिन आज माहौल बदल रहा है। गूगल को एक ऐसे विशालकाय ऑक्टोपस की तरह देखा जा रहा है, जिसकी बांहें पूरे नेट को घेरे हुए हैं। वह हर क्षण साइबर स्पेस के अंधेरे भूगर्भ में रेंगता रहता है, वहां सुरंगें बनाता है और चुपचाप हर चीज दर्ज करता रहता है। वह नेट की सूक्ष्म से सूक्ष्म धड़कन को रेकॉर्ड करता है, लेकिन जब वह यह सब आप-हम तक लेकर आता है, तो बदले में हमारे डेस्कटॉप के जरिए हमारे जीवन में भी अदृश्य रास्ते बना चुका होता है। हर सर्च गूगल के दिमाग में हमेशा के लिए दर्ज हो जाती है और साथ में तारीख, समय और आईपी एड्रेस भी। गूगल हम सब के बारे में कुछ न कुछ जानता है। वह हमारे गूढ़ रहस्यों का अकेला साझीदार है। हमारे खुफिया ब्यौरों तक उसकी पहुंच है। इसके अलावा जब कोई गूगल टूलबार को अपने पीसी में इंस्टॉल करता है, तो अपनी हार्ड डिस्क में गूगल के लिए एक सेंध बना देता है।

और उसका इस तरह सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता होना लोगों में डर पैदा कर रहा है। यह डर वाजिब भी है। गूगल के पास लोगों के बारे में जितनी सूचना है, उतनी आज से पहले किसी के पास नहीं हुई, शायद सरकारों के पास भी नहीं। इसलिए अब कहा जाने लगा है कि गूगल ऐसा शैतान है, जो इंटरनेट पर कब्जा कर लेना चाहता है। उसकी तुलना '1984' के बिग ब्रदर से की जा रही है, जो हर इंसान पर नजर रखता है।

सवाल यह है कि गूगल इस हैसियत से क्या कर सकता है। वह जानकारी के इस खजाने का कमर्शल इस्तेमाल कर सकता है। उसके गलत फायदे उठा सकता है। दूसरे कॉरपोरेशनों को बेच सकता है, या फिर उन सरकारों को, जो अपनी जनता की जिंदगी पर पकड़ बनाए रखना चाहती हैं। यानी मामला प्राइवेसी का है और इसके साथ ही कॉरपोरेट मॉरेलिटी का।

गूगल का सिद्धांत है, 'बुरा मत करो'। लेकिन इस वादे पर यकीन तब दरकना शुरू हुआ, जब गूगल एक विशाल कंपनी में बदलने लगा। एक तरफ उसकी पहुंच, आमदनी और मार्केट वैल्यू तेजी से बढ़ी, तो दूसरी तरफ उसमें वैसी ही प्रवृत्तियां नजर आने लगीं, जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम के शहंशाह माइक्रोसॉफ्ट में हैं-अपने प्रतिद्वन्द्वी को मिटा देने की। जल्द ही ऐसा लगने लगा कि गूगल बाजार पर एकछत्र राज के लिए बेताब है और अपनी भलमनसाहत छोड़ रहा है। लोगों को उसकी सर्च प्राथमिकताओं में भेदभाव नजर आने लगा। उसने अपने आलोचकों का मुंह बंद करने की कोशिश की और घमंड के अहसास से घिरा नजर आने लगा।

सवाल अभी अस्पष्ट इरादों और जनता के नजरिए का है, लेकिन सोचिए गूगल अगर चाहे, तो इंटरनेट पर उसका शिकंजा सचमुच कस सकता है। अगर ऐसा हुआ, तो साइबर स्पेस का खुलापन, जो उसकी असली ताकत है, खतरे में पड़ जाएगा। लेकिन क्या किसी कानून से इसे रोका जा सकता है? वह इलाज तो मर्ज से भी बदतर होगा। उम्मीद कोई है, तो सिर्फ टेक्नोलॉजी से, जिसकी एक हरकत गूगल को हाशिए पर धकेल सकती है। या फिर नेटिजन का सात्विक क्रोध गूगल की भटकन को अलोकप्रिय और इसलिए अलाभकर बना सकता है। आखिरकार बाजार पर हमारी पसंद का राज अभी बचा हुआ है। बस, वह पसंद सही हो।

साभारः एनबीटी

Friday, January 20, 2006

कहीं गूंजने न लगे मेरी मुम्बई...मेरी दिल्ली की आवाज़

अंधेर नगरी सभी हैं राजा पर तरुण जी का निठल्ला चिंतन पढ़ा. इस लेख ने दिन में घटे घटनाक्रम की याद ताजा कर दी, जो मन में एक प्रश्न छोड़ गया था. लेख पढ़कर यही अहसास हुआ कि चिंतन निठल्ला नहीं बेहद गंभीर हैं. तरुण जी ने अपने लेख में जिस पलायन की बात कही है उसका असर तो शहरों पर दिखने ही लगा है. महानगर की ओर पहुंचने वाली हर सड़क से न जाने कितने हजारों लोग रोजी-रोटी की तलाश में हर दिन, हर पल शहरों की ओर रुख कर रहे हैं. और रही बात अपना शहर, अपना राज्य को रोना रोने वालों की, तो वो अब सभी जगहों पर शुरु हो गया है. बस अंतर यह है कि मुम्बई में ये आवाज सुनी जा चुकी है, दूसरी जगहों पर अभी ये आवाज़ लोगों के दिलों में धीरे-धीरे घर कर रही है. संभव है दूसरे शहरों से इसकी गूंज भी जल्द ही सुनाई पड़ने लगे. ऐसा कहने के पीछे एक कारण यह भी है कि आज दिन में बस में एक छोटा सा वाक्या हुआ. हालांकि देखा जाए तो कहने के लिए ये वाक्या कुछ नहीं था, सिर्फ बस में सफर कर रही दो महिलाओं की आपसी बातचीत भर थी. फिर भी उसे सुनने के के बाद मन में ये प्रश्न उठा था कि क्या आज के युग में यह संभव है कि लोग अपने शहर, अपने राज्य और अपने देश तक सीमित रहें?

आज दोपहर जब मैं बस से ऑफिस आ रही थी तो कुछ स्डैंड बाद ही दो महिलाएं बस में सवार हुई. दोनों ही देखने में अध्यापिका लग रही थी. उनमें से एक महिला को मेरे साथ वाली सीट मिल गई और दूसरी पास ही खड़ी हो गई. वे दोनों घर जाने की जल्दी में थी इसलिए अपने ब्लूलाइन के ड्राइवर जी को जगह-जगह बस रोकने के लिए कोसती जा रही थी (वैसे ये काम तो दिल्ली की ब्लू लाइन बसों में सफर या यूं कहें suffer करने वाला यात्री दिन में एक बार करता ही है). खैर, बस का ड्राइवर यात्रियों की हड़बड़ी से बेखबर आदत के अनुसार बस को चलाता रहा. एक बस स्टॉप से जैसे ही बस चली कि कंडक्टर ने सड़क पर, जहां आस-पास कोई स्टैंड नहीं था, 8-10 लोगों को सामान से लदे-फदे देखते ही बस को हाथ मारकर सड़क के बीचों-बीच ही रुकवा दिया और उनसे पूछने लगा कि कहां जाना है. जवाब सुनते ही उसकी तो मानो लॉटरी लग गई. भाग्य से सवारियां उसी के रुट की थी. इतनी सारी सवारियों को बस में चढ़ाने में हुई देरी से मेरे पास बैठी आंटी का पारा कुछ और बढ़ गया. फिर उन्होंने पहले तो ड्राइवर कोसा और बाद में जिन सवारियों की वजह से देर हुई उन्हें देखकर कहा- बांग्लादेशी हैं. उसके बाद वे बोलीं सभी को दिल्ली में ही जगह मिल रही है.... आ जाओ दिल्ली में सब समा जाएंगे. बस उन्होंने ये कहा ही था कि उनकी महिला मित्र भी अपने नेपाली नौकर की गाथा लेकर शुरु हो गईं और बताने लगी कि कैसे उनका नौकर धीरे-धीरे अपने परिवार को यहां लेकर आ गया और किस तरह वे लोग दिल्ली के बिजली-पानी का मुफ्त इस्तेमाल कर रहे हैं वगैहर-वगैहर.

उनकी बातें सुनकर एक क्षण के लिए दिल्ली की बदहाली मेरे दिमाग में कौंधी और लगा कि बोल तो सही रही हैं दोनों. पर दूसरे ही पल ये ख्याल आया कि हम भी किसी राज्य से यहां आए हैं और हमारे देश के लोग भी दूसरी जगहों पर जा रहे हैं, कुछ वैधानिक तरीके से कुछ असंवैधानिक रुप से. किसी को कहीं आने-जाने से रोक पाना कैसे संभव है. सभी कामकाज और रोजगार की तलाश में यहां से वहां भाग रहे हैं.

दरअसल दिल्ली को दिनोंदिन बदहाल होते देख यहां के निवासी (मेरे जैसे, जो शायद खुद या उनके बाप-दादा किसी जमाने में दिल्ली में रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में आए थे) बाहरी क्षेत्रों से आने वालों को दोषी मानने लगे हैं. ये सही है कि महानगरों में बढ़ रही भीड़ अव्यवस्था बढ़ा रही है और रोज नई परेशानियां पैदा कर रही है, जिसे नियंत्रित किए जाने की सख्त जरुरत है. लेकिन दूसरा सच यह भी है कि आज के दौर में किसी को राज्य या देश की सीमाओं बांधना संभव नहीं है. सबसे ज्यादा जरुरी है कि गांवों और कस्बों में रोजगार के अवसर मुहैया कराने की, ताकि इस पर कुछ हद तक काबू पाया जा सके. बाकी दूसरे कारण भी हैं जिन्हें दूर किया जाना जरुरी है. नहीं तो वह दिन बहुत दूर नहीं कि मेरी मुम्बई, मेरी दिल्ली.... मेरा राज्य.... जैसी आवाज़े चारों ओर से सुनाई पड़ने लगे.

Wednesday, January 18, 2006

बार बाला से किसकी मौज

दिल्ली के पियक्कड़ सब आजकल बहुते खुश हैं। अब बार में सुंदरी के हाथ से सुरा जो मिलेगी, मतलब नशा का डबल डोज न हो गया! एतना खुश हैं कि अपना अवैध निर्माण गिरता देखकर भी उनको दुख नहीं हो रहा। हमको तो लगता है कि अब दिल्ली का कायाकल्प हो जाएगा।

सब कहता है कि इससे ला एंड आर्डर की स्थिति बिगड़ेगी, लेकिन हमको लगता है सुधर जाएगी। एक बार 'बार बाला' सब को काम पर पहुंचने दीजिए, फेर देखिएगा रोड पर कैसे मवालियों का अकाल हो जाता है। सब बांका रात भर मयखाने में रहेगा औरो दिन भर हैंगओवर में। आप छेड़ने की बात करते हैं! रोड पर लड़कियां तरस जाएंगी, कोई उनको देखने वाला नहीं मिलेगा। और बार में...? बाला सब उनको एतना टंच पिला देंगी कि उनसे गिलास नहीं संभलेगा, आप बंदूक-पेस्तौल चलाने की बात करते हैं। औरो ऐसने चलता रहा, तो एक दिन दिल्ली के सब बदमाश डैमेज लिवर औरो किडनी के साथ एम्स में भरती होकर इलाज के अभाव में मर जाएगा। पूछ लीजिए अपने रवि बाबू से, इसका इलाज केतना महंगा होता है। न हींग लगा न फिटकरी औरो रंग देखिए क्राइम कंट्रोल केतना चोखा हो गया... आप सरकार को बेकूफ समझते हैं। हां, कुछ भलो लोग मरेगा, लेकिन का कीजिएगा, कुछ पाने के लिए कुछ तो गंवाना ही पड़ता है।

आप बूझ नहीं रहे हैं कि एक सरकारी तीर से केतना शिकार हो गया। अब सरकार का रेवेन्यू तो बढ़वे करेगा, ऐसन तथाकथित बुद्धिजीवियो सब निबट जाएगा, जिसको बिना पिये बौद्धिक बहस में मजे नहीं आता है या ई कह लीजिए कि जो पीने के बाद ही बुद्धिजीवी बन पाता है। होश में रहेगा, तब न सरकार की आलोचना करेगा। 'बार बाला' पिला के एतना टाइट कर देगी कि सरकार को गटर में फेंकते-फेंकते उ खुदे गटर के बगल में लुढ़क जाएगा।

सरकार की मौज तो औरो सब है, जैसे- लोग जब मयखाना में पैसा बहाएगा, तो अवैध निरमाण के लिए पैसे नहीं बचेगा, लोग कारो नहीं खरीद पाएगा। फिर सरकार को कोर्ट में अवैध निरमाण के वास्ते फजीहत नहीं झेलनी पड़ेगी। ऐसे में कोयो बच्चा को प्राइवेट स्कूल में नहीं भेज पाएगा? मतलब सब सरकारिये स्कूल में पढ़ेगा। सरकार कहेगी- देख लो प्रशासन, अवैध निर्माण खतम... शिक्षा का स्तर सुधार दिया, परदूषण औरो टरैफिक कंट्रोल हो गया। फायदा औरो सब है। हमर ऐगो दोस्त जब मुंबई के बियर बार में जाता था, तो बार डांसर को हजार रुपया टिप देते भी ऐसे शर्माता था, जैसे देना तो उसको दस हजार था, लेकिन चेकबुक घरे भूल आया। यही बात यहां भी होगी। विशवास कीजिए, जल्दिये दिल्लीवाला सब पांच रुपया को लेकर ऑटो वाला से हुज्जत करना छोड़ देगा। लोग का दिल बड़ा हो जाएगा।

वैसे, मौज तो बिना पट्टा के घूमे वाला उ जंतुओं सब का हो जाएगा। जब लोग सब पीके यहां-वहां लुढ़कल रहेगा, तो जंतु सब को 'टांग उठाने' के लिए हर चार कदम पर एगो खुला मुंह तो जरूरे मिल जाएगा। झूठे पूरे पार्क का चक्कर लगाना पड़ता है।

मौज 'बार बाला' औरो बार मालिको सब का है। पांच 'पटियाला' के बाद, गिलास में खाली सोडे गिरेगा, लेकिन दाम पूरा शराब के आएगा। मौज समाज का भी है। सामाजिक समरसता आ जाएगी। शराब के एतना नशा के सामने बाकी सब नशा लोग भूल जाएगा। मतलब अब निरीह लोग सब को सत्ता के नशा या पद औरो पैसा के नशा से घबराने की जरूरत नहीं होगी। ऐसन समाज की कल्पना तो प्लूटो और अरस्तूओं ने नहीं किया होगा!

Friday, January 13, 2006

ट्रैफिक पुलिस का आदेश

मेरा एगो नेता मित्र है। नेता है, इसलिए सब कुछ को राजनीतिक चश्मे से देखता है। उ मोटरसाइकिल को बीजेपी मानता है, तो टरैफिक पुलिस को आरएसएस। दिल्ली टरैफिक पुलिस के सड़क सुरक्षा सप्ताह में दिल्ली के रोड पर उसका एक्सपीरियंस देखिए:

उस दिन फटफटिया पर बैठा उ सत्ता से हटे बीजेपी के जैसे हिचकोले खाता जा रहा था। बैरीकेड पर एगो टरैफिक पुलिस उसको संघ के जैसे घूरते मिल गया। उ रुकना तो चाह रहा था, लेकिन कमबख्त इंडिया शाइनिंग के नियोन वाला विज्ञापन से आंखे चुंधिया गई। जब तक संभलता, पुलिस को ठोंक चुका था। वैसे, रोक-टोक से तंग होकर उसको ठोंकना तो उ बहुते दिन से चाहता था।

खैर, पुलिस पट्ठा मजबूत निकला। खुद उठा, उसको उठाया और टूटे स्टैंड वाला फटफटिया को पांच-दस गो ईंटा के 'सामूहिक नेतृत्व' के सहारे खड़ा कर दिया। अब उ फटफटिया का निरीक्षण कर रहा था। पुर्जा-पुर्जा ढीला था। लौह पुरुष जैसा हेडलाइट बूझने से पहले खूब चमक रहा था, गियर बदलने पर गाड़ी जैसे दुलत्ती मारते पीछे भागती थी, चेन का खांचा सब बीजेपी की दूसरी लाइन के झोलटंगा नेता के जैसे एक-दोसरा को लंगड़ी मार रहा था, तो फ्री-व्हील उमा जैसे थोड़े-थोड़े समय पर पूरी चेन को उतारने पर अड़ल था। फ्री-व्हील से परेशान ब्रेक अक्सर जैसे ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग करने लगती थी औरो फेर सब कुछ भगवान भरोसे हो जाता था। साइलेंसर को सूंघकर पुलिस ने इहो पता लगाया कि गाड़ी मिट्टी के तेल में पेट्रोल मिलाकर चल रही है! पुलिस परेशान, आखिर क्या करे? जिस दिव्य- दृष्टि वाले संजय को जोश में गड़बड़ी रोकने के लिए भेजा था, उहो मिलावटी निकला! भोपाल वाला सीडी सामने था।

खैर, पुलिस ने उसको चाल, चरित्र व चिंतन बदलने को कहा औरो चालान बुक निकाला। लेकिन पुलिस परेशान! आखिर केतना गड़बड़ी के लिए चालान करता उ। उसको गोस्सा आ गया, 'अपने बल पर खड़ा नहीं हो सकता, लेकिन हेडलाइट देखो केतना तेज है! आंख चुंधिया रही है।' फिर क्या था, हेडलाइट बदल दी गई औरो कम वाट का एगो बलब लगा दिया गया। भविष में गाड़ी एतना तेज हेडलाइट नहीं लगा सके, इसके लिए स्टैंड के बदला में 'सामूहिक नेतृत्व' का ईंटा जोड़ने का आर्डर हुआ। और फ्री-व्हील? उसको फेंक दिया गया। समस्ये खतम! अब विकल्प तलाशा जाएगा।

लेकिन ई सबसे गाड़ी की परेशानी बढ़ गई है। उसके दिमाग में एके गो प्रश्न है - एतना कंट्रोल में दिल्ली के रोड पर कहीं गाड़ी चलती है? उ भी तब, जब रोड पर ऐसन ब्लू लाइन बस चल रही हो, जो चंद्रबाबू, मुलायम व अमर के साइकिल औरो जयललिता व ममता के घास-पात को मिट्टी में मिलाने पर तुला हुआ हो।

हमरे खयाल से तो अब गाड़ी के पूर्जा सबको ई फैसला ले ही लेना चाहिए कि बेलगाम ब्लू लाइन से दबके अकाल मौत मरा जाए या पुलिस का आदेश माना जाए। आप का सोचते हैं?

Article: PRJ

Thursday, January 12, 2006

समय का उपवास

समय जिसे भारतीय मनीषियों ने काल भी कहा है, अपनी सुविधा के लिए हमने उसे कई हिस्सों में बांटा है। दिलचस्प बात यह है कि आज हर कोई समय की कमी महसूस करता है। समय धन भी है और उससे ज्यादा भी। मौजूदा दौर का मनुष्य अगर किसी से आक्रांत है तो समय से। अगर समय प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती है, तो समय की गिरफ्त बड़ी जबरदस्त है। सभ्यता ने एक शब्द और खोजा है- डेडलाइन। एक ऐसी अदृश्य रेखा जो निरंतर लोगों के सिर पर हांट करती रहती है। कई लोग इस डेडलाइन से इतने आक्रांत हैं कि अपनी पहले से कठिन जिंदगी को और दूभर बना लेते हैं। चौबीस घंटे घड़ी देखते रहने की आदत हमारी जिंदगी को यंत्रवत बना डालती है और इसका हमें आभास तक नहीं होता।

व्यस्तता के इस दौर में आप अपनी आमदनी पर कोई विपरीत असर डाले बिना ही एक मजेदार अभ्यास आप सकते हैं। कुछ खास नहीं करना है, बस अवकाश के दिन अपनी घड़ी को ताले में बंद कर रख देना है। हर चीज को बिना प्रबंधन के होने दीजिए। स्वस्फूर्त ढंग से। आपको लगेगा कि जैसे आप किसी दासता से मुक्त हो गए हैं। सप्ताह में कम से कम इस दिन आप बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के काम कर के देखिए। संभव है यह अभ्यास कुछ अटपटा सा लगे। आपको लगे कि बड़ी अजीब मुसीबत में फंस गए हैं। लेकिन यह मुसीबत नहीं है। समझिए कि यह भी समय का उपवास ही है। और कोशिश कीजिए कि किसी से समय ही नहीं पूछें इस दिन। बस वह काम करते रहिए, जो आपको अच्छा लगता है। नतीजा यह होगा कि एक मजेदार घटना घटेगी। आपको लगेगा कि कुछ छूट गया है, लेकिन आप जो कर रहे हैं, वह और भी अच्छा है। आपकी स्वाभाविक शक्तियां एक बने बनाए ढांचे से बाहर सोच रही होंगी।

रचनात्मक लोगों की एक खूबी यह होती है कि वे फ्रेम को तोड़ते हैं। फ्रेम से बाहर जाकर सोचते हैं। वे सीमाओं से परे जाते हैं। लेकिन नतीजे अमल में लाने के लिए जरूरी है कि कार्यक्रम और समयविहीनता में एक तालमेल बैठाया जाए। समयविहीनता का यह दिन, जब आप समय की काराएं तोड़ते हैं, देखेंगे कि आप एक उत्फुल्लता से भरे हुए हैं।

Thursday, January 05, 2006

बुड़बक नहीं बनना इस साल

ई साल हम बुड़बक नहीं बनना चाहता हूं, इसलिए पिछला साल से सबक लूंगा। इस साल के लिए हमने जो सोचा है, कुछ चीज आपको भी बताता हूं।

हम खूब घूस खाऊंगा, लेकिन सांसदों के जैसे नहीं कि कुर्सिये से हाथ धोना पड़े, बल्कि एमसीडी के अफसर की तरह। पहले घूस लेकर अवैध निर्माण कराओ औरो फेर खुदे तोड़ने पहुंच जाओ। बंदा फेर घर बनाएगा, मतलब एक बेर औरो आपको घूस पहुंचाएगा। घूसखोरी में ऐसी मौज दुनिया में कहीं और देखे हैं आप?

कानून अपनी जेब में करना है, इसलिए सत्ताधारी पार्टी का एमपी या फेर केंद्रीय मंत्रियो बन सकता हूं। देखे थे न जयप्रकाश यादव को, बदमाश भाई को थाने से जबर्दस्ती छुड़ा लिया। बिपक्षी सब हो हो नहीं करता, तो अभियो उ मंत्री रहते। कानून के रक्षक बनने का शपथ खाने के बाद एतना तो आप देश को 'खा ही सकते हैं! उ शहाबुद्दीने को देख लीजिए। अगर पाक का नमक भी केकरो घर में मिल जाए, तो उ पाक एजेंट हो जाता है औरो हिरण का नाखूनों मिल जाए, तो मेनका गांधी के चेला सब हल्ला करने लगता है, लेकिन मरल हिरण के साथ वीरता दिखाने वाला फोटुआ खिंचाके और घर में पाकिस्तानी गोली रखके भी मियां जी का कुछो नहीं बिगड़ा। पुलिस पकड़वो किया उनको, तो बिजली चोरी के जूर्म में, जैसे पुलिस न होकर बीएसईएस का करमचारी हो! ऐसे में इस साल भगवान औरो चैनल सब से हम दुआ करूंगा कि सारा बिपक्ष दुर्योधन बनकर चक्रव्यूह में फंस जाए।

अगर आदर्श की बात करें, तो हमरे लिए चुनौती के पी एस गिल बनना है, ताकि सबको जड़ से 'खतम' कर दूं। फिर चाहे उ पंजाब से आतंकवाद खतम करने की बात हो या फिर देश से हॉकी के खेल को। आखिर रोम के जलने के समय नीरो की तरह बंसी हर कोई थोड़े बजा सकता है! कलेवर चाहिए इसके लिए। हां, उमा भारती हम कभी नहीं बनूंगा, क्योंकि बेआबरू होकर अपने ही कूचे से हम नहीं निकलना चाहता हूं। आप चाहे जितना मोटा खंभा हो, अगर घर ही कहे कि उसको आपका सहारा नहीं चाहिए, तो डूब मरने वाली बात होती है। इससे बढ़िया तो इस खुशफहमी में जीना है कि दुनिया इसलिए है, क्योंकि हम हूं।

इस साल के हमरे एजेंडे में शादी भी है, लेकिन बीवी घर लाने से पहले हमको उ मशीन चाहिए, जो जासूसी वाला कैमरा को जाम कर देती है। उ परभात बाबू को देख लीजिए, बेचारा हनीमून के लिए शिमला नहीं गया, क्योंकि वहां चोरी-चोरी ब्लू फिलम बन जाती है। ई जासूसी कैमरा भी बड़का आफत है हो! बीवी लाएंगे, तो एगो घरो चाहिए, लेकिन बैंक नेगेटिव एरिया में लोन नहीं देती और मिडिल क्लास लायक दिल्ली में पॉजिटिव एरिया आपको कहीं दिखा है? माइक्रोस्कोप खरीदूंगा इस साल, ताकि ऐसन एरिया ढूंढ सकूं।

खैर, ई सब बात 'खट्टा अंगूर' वाली है, भगवान करे आपका पूरा साल 'मीठा अंगूर' वाला हो।
वैसे, टीवी पर आने के लिए हम पीआरओ भी बन सकता हूं, लेकिन तभिये, जब हमरे पास अमर सिंह जैसे यूपी कंपनी, मुलायम कंपनी, सपा कंपनी, अंबानी कंपनी, सहारा कंपनी और बच्चन कंपनी जैसे क्लाइंट हो औरो यूपी, दिल्ली से लेकर मुंबई तक का एरिया।

Article: PRJ

Monday, January 02, 2006

आलू ने भी साथ नहीं दिया लालू का

एगो कहावत है खुदा मेहरबान, तो गदहा पहलवान। एकदम सटीक कहावत है। लेकिन दिक्कत ई है कि लोग इसके मर्म को समझने की कोशिशे नहीं करता है। अपने मसीहा जी को ही लीजिए। खुदे ई कहावत दोसरा के लिए बत्तीस बार कहते रहे हैं, लेकिन कभियो ई नहीं सोचे कि ई उन पर भी लागू हो जाएगी। जब तक उ पहलवान थे, किसी की औकात आलू से बेसी की नहीं थी। एक उ थे और एक आलू था! लेकिन खुदा क्या रूठे कि जिस आलू को अपने हाथों से खेतों में लगाया, उहो किसी और का होने वाला है।

राज्य की सड़क उ भले हेमा के गाल की तरह नहीं बना सके, लेकिन उनकी गाल जरूर हीरोइनों की तरह लाल हो गई थी। लेकिन समय का फेर देखिए, आजकल सूखे गोभी की तरह मुरझाए हुए हैं। का है कि ध्वजा-प्रेमी भाजपाई और उसका छोटका भाई सब चुनाव जीतने के बाद उनके किला पर अपना ध्वजा फहराने को लेकर अड़ा है। एक तो किला छिन रहा है औरो ऊपर से लोग उनकी रईसी का मजाक ऐसे उड़ा रहे हैं, जैसे कभी सत्ता जाने के बाद सद्दाम हुसैन का उड़ाते थे। कोयो कहता है कि गरीब का मसीहा स्विमिंग पुल में नहाता था! कोयो कहता है एसी में रहने वाला उनका शाही घोड़ा औरो गाय-बैल सब अब रोड पर आ जाएगा औरो उ सामंत सब भी, जो अब तक उन पर पलते रहे हैं? का करें, सुन-सुन के दिल बैठा जा रहा है।

लेकिन कुछो हो, उनका सेंस ऑफ ह्यूमर अभी गया नहीं है। कहने लगे 'अरे, लोग जिसको स्विमिंग पुल कह रहा है, उ तो तालाब है। तालाब को सिमेंटेड करा दिया, तो उ का स्विमिंग पुल हो गया? हद हो गई भाई! उ भी तो हम लचारी में बनवाए थे। जानते हैं हमको एक कम एक दर्जन बच्चा है। अगर एक आदमी आधो घंटा बाथरूम बंद रखता, तो भगवाने मालिक था। तालाब में तो सब एके बेर घुसता था और नहा के बाहर आ जाता था, जैसे भैंस सब नहाता है। औरों उ गाय-गोरू? हम जा रहे हैं सबको हाई कोर्ट से लेकर सचिवालय तक में खूटिया देंगे। जब रोड जाम होगा, तब बात सबके समझ में आएगी कि किसी का आशियाना उजाड़ना केतना महंगा पड़ता है।'

वैसे, मसीहा जी का ई कदम खतरनाक है। का है कि पंद्रह साल में सड़क पर सर्वहारा छाप गाय-बैल सब के संख्या बहुत बढ़ गया है और अब तक उसके हिस्सा का चारा खाकर पल रहा मसीहा जी के बुर्जुआ गाय-माल अगर रोड पर आ जाएगा, तो दंगे न होगा। रहने दो भाई किला उन्हीं के पास, झंडा कहीं और फहरा लो, लेकिन तब सामंत सबका क्या होगा?