Wednesday, June 13, 2007

क्या विदेशी कोच ही है अकेला ऑप्शन?

धर्मेन्द्र कुमार

ग्राहम फोर्ड के इनकार के तुरंत बाद दूसरे संभावित विकल्प जॉन एंबुरी ने भी यह कहकर अपनी मंशा जता दी है कि वह भी टीम इंडिया के 'दूसरे' कोच बनने में इंट्रेस्टेड नहीं हैं। बीसीसीआई के लिए इससे बड़ा तमाचा क्या हो सकता है! लेकिन क्या इस एपिसोड से सबक लेकर बीसीसीआई स्वदेशी कोच के बारे में सोचेगी या फिर अभी भी किसी गोरी चमड़ी वाले कोच की खोज में लगी रहेगी?

यह भलीभांति जानने के बावजूद कि भारत में क्रिकेट को सीधे-सीधे देश के गौरव से जोड़ कर देखा जाता है, बीसीसीआई लगातार विदेशी कोचों में टीम इंडिया का खेवनहार ढूंढ़ती रही है। अचंभा तो तब हुआ जब लंबे समय से स्वदेशी कोचों की वकालत करने वाले सुनील गावसकर भी विदेशी कोच का राग अलापते नजर आए।

असल में, भारत ही नहीं, किसी भी स्थापित टीम के लिए केवल उस देश का वाशिंदा ही बेस्ट कोच साबित हो सकता है। वजह है, प्रकृति व प्रवृत्ति। अगर प्रकृति की बात करें तो किसी भी देश के सभी नागरिकों पर वहां की संस्कृति, सभ्यता तथा राजनीतिक और आर्थिक परिवेश का सीधा-सीधा असर पड़ता है। इन्हीं सब कारकों से वहां के नागरिकों के व्यक्तित्वों का निर्माण होता है।

अगर हम अपने देश की बात करें तो यहां के नागरिक बहुत भावुक और 'लार्जर दैन लाइफ' इमेज में विश्वास करते हैं। मैदान चाहे खेल का हो, राजनीति का हो या फिर फिल्मों का। यहां पर किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के व्यावसायिक या सामूहिक प्रदर्शन से पहले व्यक्तिगत प्रदर्शन को तरजीह दी जाती है। सामूहिक हित एक लक्ष्य हो सकता है लेकिन अंतिम नहीं। उदाहरण आप हर क्षेत्र में देख सकते हैं। फिल्मों की बात करें तो वह अमिताभ बच्चन हो सकते हैं, रजनीकांत हो सकते हैं जबकि फिल्म एक टीमवर्क का नतीज़ा होती है लेकिन पूजा नायक की होती है। राजनीति और खेलों के क्षेत्रों में भी नाम गिनाने की जरूरत नहीं है।

प्रवृत्ति की बात करें तो किसी भी देश के नागरिक आपसी मानवीय प्रवृत्तियों के ज्यादा अच्छे जानकार होते हैं, बजाय विदेशियों के। उन्हें कम से कम यह पता होता है कि इस परिवेश में किसी भी प्रतिभा का दोहन कहां और कैसे करना है, ताकि उसकी लार्जर दैन लाइफ इमेज को, जो उसकी इस परिवेश में मुख्य मानक है, नुकसान न पहुंचे। भारतीय क्रिकेट के मामले में किसी भी विदेशी कोच के लिए इस बात को समझ पाना खासा मुश्किल हो सकता है। ग्रेग चैपल का उदाहरण अभी पुराना नहीं हुआ है। चैपल के टीम हित में लिए गए निर्णयों को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता, लेकिन क्या वह सीनियर प्लेयरों का समुचित उपयोग कर पाए? क्या वह यह समझ पाए कि सीनियर खिलाड़ियों की भारतीय समाज में बनी छवि का सम्मान करते हुए कैसे टीम में उनका यूज किया जाए? इसके उलट, पूर्व में जब भी एस. वेंकटराघवन या किसी अन्य भारतीय कोच के हवाले टीम रही तो वह इस तरह बंटी नजर नहीं आई। मतभेद रहे होंगे, टीम का प्रदर्शन भी कुछ खास नहीं रहा होगा, लेकिन टीम सीनियर व जूनियर जैसे 2 हिस्सों में बंटी नजर नहीं आई। ऐसी टीम से आप कोई उम्मीद नहीं कर सकते जो इस तरह बंटी हुई हो।

अब ऐसा लगने लगा है, कि एक बार फिर से बीसीसीआई को स्वदेशी कोच के बारे में सोचना चाहिए। एक ऐसा कोच जो टीम के सीनियर और जूनियर खिलाड़ियों से उनकी प्रतिभा, पूर्व प्रदर्शन व गरिमा के अनुरूप काम ले सके।

2 Comments:

At 1:07 PM, Blogger Gaurav Pratap said...

दूर का ढोल सुहावना होता है भइया............ और वैसे भी गोरी चमड़ी ने २०० साल शासन किया है........... उसकि गुणवत्ता मानने को तो हम अपना कर्तव्य समझते हैं.

 
At 12:38 PM, Anonymous Anonymous said...

सही बोला आप
अपने ढेश मे इतना सारा कोच हे तो BCCI विदेशी कोच क्या FANCY हे !आप ब्लॉग हिंदी मे बनने के लिए कोंसी software उपयोग किया
ए www.quillpad.in/hindi तो मुजको अच्छा लगा

 

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