Saturday, August 19, 2006

साबुन या आरडीएक्स

मुंबई के डॉक्टर खालिद ठाकुर के साथ बुरी बीती। और यह सब कुछ हुआ पांच किलो काले साबुन के कारण। डॉ. खालिद मुंब्रा मुंबई में रहते हैं और वहीं उनका क्लीनिक भी है। वह दांतों के डॉक्टर हैं। गत १३ अगस्त को वह अपनी मारुति कार में घरेलू सामान लेने अपने किरयाना दुकानदार के पास गए तो उन्हें सपने में भी ख्याल नहीं था कि वह कितनी बड़ी मुसीबत मोल ले रहे हैं।

उस दिन उनकी पत्नी ने उन्हें घर के सामान की एक लंबी लिस्ट थमा दी थी। उन्होंने सारा सामान अपनी कार में लादा और घर लौट आए। सारा सामान तो उतार दिया गया पर पांच किलो कपड़े धोने का साबुन कार की डिक्की में ही भूल गए। फिर वह अपनी कार सर्विस सेंटर पर सर्विस के लिए दे आए। १५ अगस्त के मद्देनजर उस दिन शहर में कड़ी चेकिंग की जा रही थी। इस दौरान एक कार में काली सी चीज मिली और पता चला कि कार एक मुस्लिम व्यक्ति की है तो पुलिस फौरन हरकत में आ गई।

इसके बाद जो हुआ वह इस प्रकार है। १५ अगस्त की शाम वह अपने क्लीनिक में मरीजों की जांच कर रहे थे, तभी उनके पास मुंब्रा थाने से फोन आया कि कुछ पूछताछ के लिए वह थाने आ जाएं। तीन बच्चों के पिता खालिद यह सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी कार में कपड़ा धोने का साबुन रह गया है, और पुलिस ने उसे साबुन न समझ कर आरडीएक्स (विस्फोटक) समझ लिया है। इधर पुलिस की बात देखिए, ११ जुलाई की घटना के बाद तो उनके लिए दूध का जला छाछ भी फूंककर पीने का सा मामला हो गया था। उन्हें सीधा सा साबुन आरडीएक्स लग लग रहा था। इसकी जांच बम निरोधी दस्ते और दूसरे एक्सपर्ट से भी कराई गई। सबने यह पाया कि यह आरडीएक्स नहीं बल्कि साबुन है।
सीनियर अफसर सुरेश पवार फौरन समझ गए कि यह साबुन है, आरडीएक्स नहीं। पर दूसरे सीनियर अफसर यह मानने को तैयार नहीं हुए।

सुरेश पवार ने डॉक्टर खालिद को अपनी कार के साथ घर लौटने की इजाजत दे दी। लेकिन थोड़ी ही देर बाद वागले पुलिस ऑफिस से फोन आया कि यहां बम विरोधी दस्ता उनकी कार में पाए सामान की एक बार फिर जांच कर रहा है, आ जाएं। खालिद फिर अपने कुछ मित्रों के साथ वहां पहुंचे। उनसे लंबी पूछताछ की गई। खालिद ने बताया: वहां एक बार जब बम निरोधी दस्ते के लोगों ने साबुन को बारूद बताया तो मेरा दिल सिर पीटने को हो गया। आखिर यही हमारे बम निरोधी एक्सपर्ट हैं? जिन्हें साबुन और बारूद में भी अंतर नहीं पता।

डॉक्टर खालिद ने बताया: जब मुझ जैसे डॉक्टर के साथ इस तरह का सलूक किया गया तो आम आदमी के साथ कैसा सलूक होता होगा, उसकी कल्पना की जा सकती है। बहरहाल अंत में यही साबित हुआ कि यह साबुन था और उन्हें देर रात घर लौटने की इजाजत दे दी गई। पुलिस का कहना था कि ११ जुलाई के बाद और स्वतंत्रता दिवस होने के नाते हमारी मजबूरी थी कि हम चौकस रहें। पुलिस ने उनसे किसी भी तरह का दुर्व्यवहार करने से इंकार किया है।

अब सुरक्षा के नाम पर पुलिस की चौकसी की बानगी तो आप देख ही रहे हैं. यही कारण है कि ऐसे अवसरों पर आम नागरिक बाहर निकल कर मुसीबत मोल लेने की बजाए घर में बैठना ज्यादा पसंद करते हैं.

Saturday, August 12, 2006

कभी अलविदा न कहना...

करण जौहर की फिल्म कभी खुशी कभी गम जब आई थी तब फिल्म देखकर आने वालों ने ये सलाह दी थी कि फिल्म देखने जा रहे हो तो अपने साथ ढेर सारे ट्यिशू ले जाना मत भूलना. अब उनकी नई फिल्म से भी दर्शक यही उम्मीद लगाए बैठे थे. पर थैक्स टू करण उन्होंने इस बार दर्शकों को रुलाया नहीं. हां नया फार्मूला पेश करने के चक्कर में वह खुद इतना कंफ्यूज हो गए कि दर्शक बेचारे अंत तक ये समझ नहीं पाए कि वास्तव में वे फिल्म के जरिए क्या संदेश देना चाहते हैं.

फिल्म की कहानी न तो प्यार जैसी भावना की सही व्याख्या करती प्रतीत हुई और न ही इसमें अनजाने हालातों में बने संबंधों को सही से दर्शाया गया. कहानी दो ऐसे युवा जोड़ों की है जो अपनी शादी में खुश नहीं हैं या यू कहें कि खुश रहना नहीं चाहतें. ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म देखकर अंत तक ये समझ नहीं आया कि सब कुछ होते हुए भी आप अपने साथी व परिवार से खुश क्यों नहीं हैं? खासकर तब जब आपने अपनी मर्जी से पार्टनर चुने हैं. फिल्म की शुरुआत रानी मुखर्जी और अभिषेक से शादी से होती है. अभिषेक रानी से प्यार करता है और रानी उसके प्यार को स्वीकार करने में 3 साल का समय लगाती है और उससे शादी करने के लिए हां करती है. शाहरुख और प्रीति कॉलेज के दिनों की दोस्ती को शादी में बदल लेते हैं.

जिस दिन रानी की शादी होती है उस दिन एक अजनबी (शाहरुख) मिलता है और वह उसे शादी करने की सलाह देता है जबकि रानी मुखर्जी मोहब्बत और शादी को लेकर असंमजस में है. (रोचक बात ये है कि उसे किसी से प्यार नहीं है फिर भी वह प्यार के इंतजार में है). उसने शादी को एक समझौता मान लिया है जबकि असल में ये समझौता था नहीं (कम से कम फिल्म में ऐसे हालात तो कहीं नहीं थे). दूसरी ओर शाहरुख के पास सब है मां, एक स्मार्ट सेक्सी बीवी, प्यारा सा बच्चा, एक हंसता-खेलता परिवार, फिर भी वह जिंदगी से कुछ और चाहते हैं.

एक ओर जहां शाहरुख एक हादसे के बाद अपने सपने को पूरा न कर पाने की भड़ास अपने परिवार पर निकालते हैं, तो दूसरी और शादी के कई साल बाद भी “अपने प्यार” की चाह में रानी पति अभिषेक से प्यार नहीं कर पाती. शाहरुख को अपनी पत्नी से शिकायत है कि उसे अपने परिवार से ज्यादा कैरियर की परवाह है. जबकि रानी को अपने पति का रोमांटिक स्वभाव प्यार करने के लिए मुनासिब नहीं लगता. वह किसी और प्यार की चाह में भटक रही हैं. और यहां से शुरु होता है दो अजनबियों (शाहरुख-रानी) के मिलने का और उनके बीच दोस्ती व तथाकथित प्यार का.

फिल्म में अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग है कि प्यार और मौत कभी भी आ सकते हैं. एक पुराना फेमस गाना भी है प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है.... पर इसका फिल्म से कहीं लेना देना नजर नहीं आया. फिर भी करण जौहर ने दिखाया कि प्यार हो गया तो मान लेना पड़ा कि चलो दोनों को प्यार हो गया. लेकिन फिर सालों से जिस प्यार की तलाश दोनों को थी उसका त्याग कर दोनों अपने परिवार को जोड़ने की मिसाल कायम करने के लिए अपने-अपने घर लौट आते हैं. पर देखिए यहां उनके प्यार व त्याग को समझने की बजाए अभिषेक और प्रीति उनसे रिशता तोड़ लेते हैं. अंतत: दोनों यह फैसला करते है कि जब उनकी यही सजा है कि उनका परिवार उनकी गलती माफ न करे और उन्हे सजा दे तो क्यों न ये सजा साथ में मिलकर काटी जाए.

तो ये था करण का जौरह... हां, एक बात तो पक्की तौर पर क्लीयर हो गई करण जौहर फिल्म निर्देशक से कहीं ज्यादा बेहतर एक मार्केटर हैं, जो बेहतर पैकेजिंग व मार्केटिंग से अपने हर प्रॉडक्ट को हिट करवा लेते हैं. कहने में कोई दोराय नहीं कि फिल्म के लोकेशंन्स शानदार हैं. एक बड़ा नाम व ब्रॉंड होने का फायदा है कि आप पैसे के बूते पर मैजिक क्रिएट करने की काबलियत तो रखते ही हैं. करण की फिल्मों की खासियत फॉरेन लोकेशंस, महंगे आउटफिट्स, नाच-गाने यहां भी उतने ही लुभावने हैं जितने उनकी दूसरी फिल्मों में थे.

Moral of the Kabhi Alwida Naa Kahna: हमारे पास जो है हम उसमे खुश नहीं रहते बल्कि सुख व खुशी की तलाश में भटकते रहते हैं. शायद इसी चाह ने हम लोगों को जिंदगी की छोटी-छोटी खुशियों से दूर कर दिया है.

Thursday, August 10, 2006

अभी और इंतजार....

13 साल, दस हजार पन्नों में लिखे गए आरोप, 600 गवाह..... ये है कहानी 1993 मुंबई बम ब्लास्ट हादसे की, जिसे अभी भी फैसले का इंतजार है. 13 साल से न्याय की आस लगाए लोगों को अभी न जाने कितना और इंतजार करना होगा. ये वो लोग हैं जिन्होंने हादसे में अपना सब कुछ गवां दिया. लेकिन फिर भी न्याय की आस नहीं छोड़ी और यह उम्मीद लगाए रहे कि आज नहीं तो कल उन्हें इंसाफ मिलेगा और सैकड़ों मासूमों की जान लेने वाले अपने अंजाम तक पहुंचेंगे.

लेकिन एक बार फिर हमारी न्याय व्यवस्था की खामी के चलते हादसे के शिकार लोगों निराशा होकर लौटना पड़ा. फिलहाल उन्हें अभी और इंतजार करना है (शायद एक महीना या और...). जहां किसी देश की न्याय व्यवस्था उसका मजबूत पक्ष होती हैं वहीं ये हमारी न्यायिक व्यवस्था “weakest link” के रूप में उभर रही है. पिछले दिनों एक खबर आई जिसमें बताया गया कि हमारे देश में 50 लाख से अधिक मुकदमें पेंडिंग पड़े हैं. ऐसे में शीघ्र न्याय की उम्मीद लगाना व्यर्थ ही है.

लेकिन इसके अलावा भी दूसरे पहलू हैं जिसके चलते अपराधी कानून की खिल्ली उड़ाते खुलेआम घूम रहे हैं. मुंबई बम ब्लास्ट पर आज फैसला न आने पर टीवी पर एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी भी गौर करने लायक है कि बिना किसी ठोस कारण के फैसले को टाले जाने का कोई औचित्य नहीं था. यही कारण है कि न्याय के लिए चलने वाली सालों साल की प्रक्रिया आतंकवादियों और अपराधियों के हौसले बढ़ा रही है.

पिछले दिनों टीवी कार्यक्रम पर एक कार्यक्रम देखा, जिसमें प्रियदर्शनी मामले में हाई कोर्ट में दाखिल एक याचिक पर सुनवाई में हो रही देरी पर बहस चल रही थी. इस कार्यक्रम में सोली सोराबजी, किरण बेदी और एडवोकेट रानी जेठमलानी शामिल थे. न्याय में हो रही पर जब उनसे पूछा गया कि इसके लिए वो किसे जिम्मेदार मानते हैं तो सभी ने अपने कार्यक्षेत्र का बचाव करते हुए दूसरे पक्ष को जिम्मेदार ठहराया. पुलिस का बचाव करते हुए जहां किरन बेदी जी का कहना था कि पुलिसवाले भी इंसान हैं और यह संभव है कि साक्ष्य जुटाने में उनसे गलती हो जाए. वहीं ठोस साक्ष्य न पेश कर पाने और आरोपियों के बरी हो जाने के लिए उन्होंने पुलिस को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया. पर किसी के पास भी इस बात का जवाब नहीं था कि किस तरह इस व्यवस्था को बदला जाएगा. ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब ढूढ़ने में शायद अभी न जाने कितने साल और लग जाए. और तब तक प्रियदर्शनी मट्टू...., जेसिका लाल..., नीतिश कटारा के परिवार .... और मुंबई बम हादसों के शिकार लोग इसी तरह न्याय की बाट जोहते रहें.....