Friday, March 31, 2006

व्यर्थ है यह मूर्ख दिवस

हे नादान आम आदमियों
हमेशा मूर्ख बनते रहो


आज मूर्ख दिवस है, यानी लोगों को बेवकूफ बनाने का एक सुनहरा दिन। आज आप दूसरों को गुस्से में अपने बाल नोचने की हद तक पहुंचाने लायक मूर्ख बनाने का अधिकार रखते हैं और वह भी बिना कोई गाली खाए! आमतौर पर जब आप कोई खास दिवस मनाते हैं, तो उसके पीछे उद्देश्य यह होता है कि उस दिन किसी ऐसे उपेक्षित चीज या फिर शख्स को याद कर लिया जाए, जिसे आप साल भर याद नहीं रखते, जैसे आप महिला दिवस, शहीद दिवस आदि मनाते हैं। ऐसे में मेरे समझ में यह बात नहीं आती कि आप लोग मूर्ख दिवस क्यों मनाते हैं? क्योंकि आप तो डेग-डेग पर दूसरों के द्वारा मूर्ख बनाए जाते हैं।

वैसे, आप इतने भोले हैं ही कि आपको मूर्ख बनाने में दूसरों को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है। अब अगर बिना किसी मेहनत के कोई मूर्ख बन जाए, तो उसे मूर्ख नहीं बनाने वाला ही तो बेवकूफ कहलाएगा न। ऐसे में आपको बेवकूफ बनाने वालों की भी कोई गलती नहीं है।

अब आप ही देख लीजिए कि आपको सालों भर मूर्ख बनाया जाता है और आप आप हैं कि आज मूर्ख दिवस मना रहे हैं। अभी-अभी सरकार ने अध्यादेश जारी कर आपको कुछ दिनों के लिए ही सही, मूर्ख तो बना ही दिया। आप यह सोचकर खुश हैं कि सरकार ने मिक्स्ड लैंड यूज के तहत आपको फूल लिबर्टी दे दी है कि आप नीचे दुकान रखिए और ऊपर मकान। कितने भोले हैं आप! आपको नहीं पता कि कल कोर्ट इस अध्यादेश को मानने से इनकार भी कर सकता है। तब सरकार आपसे कहेगी, 'लो, मैंने तो तुम्हारे कल्याण लाने के लिए कानून बनाया, लेकिन कोर्ट ने लंगड़ी लगा दी। अब मैं क्या करूं?' फिर वह आपसे सहानुभूति जताते हुए एक नया चुग्गा डालेगी और मुझे पूरा विश्वास है कि आप उस पर भी विश्वास कर लेंगे और अगले चुनाव में कांग्रेस को डुबाने की बात नहीं करेंगे।

सबसे ज्यादा मूर्ख तो आप बाजार के हाथों बनते हैं। आप 'सेल' में जाकर सौ रुपये की चीज दो सौ में खरीदते हैं और फिर भी खुशी-खुशी सबको यह बताते फिरते हैं कि आपने वह चीज सस्ते में 'लूट' ली है। ऐसे में अगर कोई आपसे यह कह दें कि आप ठगा गए हैं, तो बुरा मानने में आपको मिनट नहीं लगता। आप मान लेते हैं कि सामने वाले के लिए 'अंगूर खट्टे हैं' वाली बात है। वह तो आपकी सस्ती खरीदारी से जल रहा है। तो इतने बेवकूफ हैं आप।

मुझे तो विश्वास नहीं होता कि आप एक रुपये के लिए भी मूर्ख बन सकते हैं, जबकि हकीकत यही है कि बाजार आपको एक रुपये के लिए मूर्ख बना डालती है। आप कोई घटिया-सा डिटरजेंट या साबुन भी थोक में सिर्फ इसलिए खरीद डालते हैं कि उसकी खरीद पर एक रुपये की छूट का ऑफर होता है। तब आप एक मिनट को भी यह नहीं सोचते कि यह छूट आपकी सेहत पर भारी पड़ सकता है।

हद तो यह है कि आप खुद यह जानते हुए भी मूर्ख बन जाते हैं कि आपको बेवकूफ बनाया जा रहा है। इस तरह से मूर्ख बनाने में अपने देश की मनोरंजन इंडस्ट्री सबसे आगे है, लेकिन आप इतने भोले हैं कि आप उनका कभी बुरा नहीं मानते। क्या आपको याद है कि टीवी पर आने वाले रियलिटी शोज के अमित शाना, अभिजीत सावंत, काजी तौकीर, देबोजीत, विनीत आदि के रोने-गिड़गिड़ाने और इमोशनल ब्लैक मेलिंग के झांसे में आकर कितने रुपये एसएमएस और फोन कॉल्स में फूंके हैं या फिर करोड़ों रुपया जीतने के लिए केबीसी, कम या ज्यादा और डील या नो डील में कितने कॉल्स किए हैं? नहीं याद है न। होगा भी नहीं, यही तो बाजार की मीठी चाकू है, जिससे आपकी जेब काट ली जाती है और आपको पता भी नहीं चलता। कितने मूर्ख हैं आप कि गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए आप दो रुपये दान नहीं कर सकते, लेकिन ऐसे शोज के लिए एक एसएमएस पर छह रुपये खर्च करने में भी आपको कोई हिचक नहीं होती।

आपकी बेवकूफी का फायदा आपके बॉस भी कम नहीं उठाते। वह आपको साल भर यह आश्वासन देते रहते हैं कि आपके काम को देखते हुए इस बार वह आपको जरूर जबर्दस्त इंक्रीमेंट दिलवाएंगे, लेकिन होता कुछ नहीं। फिर भी आप इस आशा में ऑफिस में हाड़-तोड़ मेहनत करते रहते हैं कि अगले साल जरूर आपकी सेलरी अच्छी-खासी बढ़ जाएगी। यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहता है और फिर आप इतने घिसे-पिटे हो चुके होते हैं कि कोई दूसरा आपको अपने यहां नौकरी नहीं देता!

यहां तक कि चौबीस घंट का खबरिया चैनल भी आपको मूर्ख बनाता रहता है। जब सचिन क्रिकेट टीम में नहीं होता, तब भी उसकी पूरी जीवनी दिखाता है और जब शतक मारता है, तब भी। अमिताभ की अमित कथा तब भी दिखाई जाती है, जब अमिताभ बीमार पड़ते हैं और तब भी दिखाई जाती है, जब जया बच्चन राज्यसभा से विदा होती हैं। और आप भी कम नहीं हैं, महीने में पांच बार एक ही चीज देखकर भी आपका जी नहीं उबता।

दिलचस्प बात यह है कि मनोरंजन के नाम पर जो टीवी सीरियल आपको जितना अधिक बेवकूफ बनाता है, आप उसकी टीआरपी रेटिंग उतनी ही हाई कर देते हैं। अब तो मैं विश्वास करने लगा हूं कि आपको कोई मूर्ख बना रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह ज्यादा चालाक है, बल्कि वह इसलिए सफल हो जाता है कि आप अव्वल दर्जे के बेवकूफ हैं।

अगर आप बेवकूफ नहीं होते, तो चोपड़ाओं या जौहरों की फिल्में बनाने वाली दुकानें इतनी कमाई नहीं कर रही होतीं। वे अपनी पिछली फिल्म में ही थोड़ा-सा तड़का लगाकर आपके सामने परोस देते हैं और आप हैं कि उसे नई डिश समझकर उस पर टूट पड़ते हैं। आप बोस पर बनी अच्छी फिल्म को नकार सकते हैं, आप गांधी के बहाने संवेदनशील फिल्म बनाने वाले अनुपम खेर की हौसला आफजाई नहीं कर सकते, लेकिन मसाले में रंगी बसंती आपको बहुत भाती है। स्थिति तो यह है कि बेचारे गूंगे इकबाल की क्रिकेट में आपको कोई दिलचस्पी नहीं होती, लेकिन आमिर की मसालेदार क्रिकेट आपसे पूरा लगान वसूल लेती है। ऐसे में मुझे तो यही लगता है कि कुछ लोगों ने आपको मूर्ख बनाने के लिए आपकी कमजोर नस पहचान ली है और वे उसी के अनुसार आपको आसानी से बेवकूफ बनाते रहते हैं। आप हैं कि खुशी-खुशी बनते भी रहते हैं।

ऐसे ही अगर आप पुरुष हैं, तो आपको अंदाजा होगा कि कैसे आपकी बीवी साल भर मूर्ख बनाकर आपसे काम निकालती रहती हैं और अगर आप महिला हैं, तो आपको यह पता होगा कि कैसे हर असंभव काम को करने के लिए आपको नई जूलरी का प्रलोभन दिया जाता है। अगर आप बच्चे के अभिभावक हैं, तो आपको पता होगा कि बच्चे जब आपको बेवकूफ बना रहे होते हैं, तो कितने मासूम लगते हैं और अगर आप बच्चे को बेवकूफ बना रहे होते हैं, तो आपको कितना संतोष मिलता है, यह सोचकर कि आपने उसे फुसला लिया है। फिर यह काम तो साल भर चलता रहता है।

वैसे, मुझे लगता है कि आप मूर्ख बन जाते हैं, तो इसमें बहुत ज्यादा आपकी गलती भी नहीं है। दिक्कत यह है कि आप अव्वल दर्जे के संवेदनशील लोग हैं, इसलिए आप जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं। रोने-धोने और पारिवारिक मूल्यों की बातें पता नहीं क्यों आपको इतना द्रवित कर देती हैं कि आप मूर्ख बन जाते हैं!

खैर, लीजिए, लगे हाथ मैंने भी आपको मूर्ख बना डाला। आपने सोचा होगा कि मैंने कितनी बड़ी-बड़ी बातें कर लीं, लेकिन आप ही बताइए इसमें कौन-सी बात मैंने नई कही है? फिर इतना बड़ा लेख पढ़कर आप भी तो मूर्ख ही बन गए न! अब आप ही बताइए, जब साल भर आप बेवकूफ बनते रहते हैं, तो फिर आज मूर्ख दिवस क्यों मना रहे हैं?

आपका
महामूर्खाधिपति

Thursday, March 30, 2006

दोहरे लाभ का चक्कर

दिल्ली में आजकल खूब झगड़ा हो रहा है। जनता जनता से लड़ रही है, नेता नेता से लड़ रहा है, तो कोर्ट सरकार से। कोई किसी को दोहरा लाभ होते नहीं देखना चाहता। अगर आप नेता हैं, तो लाभ का दो पद नहीं चलेगा औरो अगर जनता हैं, तो दोहरा लाभ नहीं चलेगा। खैर, जनता औरो नेता सब का आपस में लड़ना तो उनका जनम सिद्ध अधिकार है, लेकिन दुकानदार से जो रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन सब लड़ाई लड़ रहा है, उहो कम मजेदार नहीं है। हमरे मित्र हैं बाबू साहेब। एक ठो ऐसने एसोसिएशन के उ लीडर हैं। उ दू घंटा कोर्ट में इसलिए टैम देते हैं, ताकि एम्स रोड वाली अपनी दुकान बंद होने से बचा सके, तो पांच घंटा एसोसिएशन की मीटिंग में इसलिए टैम देते हैं, ताकि अपनी कॉलोनी के दुकानदारों की दुकान बंद करवा सके। दिल्ली का आधा आदमी अभी आपको बाबू साहेब के जैसे आधा दिन कोर्ट का समर्थन करते, तो आधा दिन कोर्ट को गरियाते मिल जाएंगे!

मतलब ई कि अपना तो दोहरा लाभ सब लेना चाहता है, लेकिन दूसरा ई फायदा उठाए, ई बात किसी को हजम नहीं हो रहा। अब कांग्रेसिये सब को देख लीजिए, जया बच्चन को लाभ के दू ठो पद पर देखना नहीं चाहते थे, लेकिन सोनिया लपेटे में आ गईं, तो सब को मिर्ची लग गई। हमको तो लगता है कि ई सब ईर्ष्या के कारण हो रहा है। आखिर घर में पत्नी और बाहर में प्रेमिका से गुटरगूं करने का दोहरा लाभ किसी और को होते कोई कैसे देख सकता है। हां, अगर खुद ऐसन मौका मिले, तो ई पुण्य कार्य कोयो छोड़ना नहीं चाहता।

ई ईर्ष्या बड़ी खराब चीज है हो। अब जो हमरे बाबू साहेब उनको कोयो और दिक्कत नहीं है। दिक्कत है तो बस एतना कि उनका पड़ोसी अपने घर में दुकान चलाता है। बाबू साहेब को ई बात बहुते अखरती है। कहां तो 20 किलोमीटर दूर अपनी दुकान पर रहकर दिन भर में उ घरवाली का एक-दू चुम्मा ही ले पाते हैं औरो उहो फोन पर, जबकि उनका पड़ोसी दिन भर बीवी की आंचल की हवा खाता रहता है। उसका दुकान का दुकान चल रहा है औरो चौबीसो घंटे बीवी का प्यारो मिल रहा है। बाबू साहेब की आंखों में पड़ोसी को मिल रहा यही दोहरा लाभ चुभ रहा है।

वैसे, बाबू साहेब दोहरा लाभ के विरोधी वैसने नहीं हैं। परिस्थिति ने उनको ऐसा बना दिया है। उ खुद हरियाणा से हैं, जहां लोग सब को बेटी तो नहीं चाहिए, लेकिन बेटे की शादी के लिए लड़की जरूर चाहिए। तमाम जुगत लगाकर उ बेटी का बाप होने से तो बच गए, लेकिन जबसे उनके नौकर ने लड़की खरीदकर शादी की है, उ चिंतित हो रहे हैं। बेटी को पालने और शादी की खरच से तो उ बच गए, लेकिन लड़कियों के अकाल में उनके बेटे को दस साल बाद बीवी नहीं मिलेगी, इसको लेकर उ चिंतित हैं। और तो और उनका दांव तब भी उल्टा पड़ा था, जब उन्होंने अपने सोसाइटी के आगे की झुग्गी बस्ती को ई सोचकर तुड़वा दिया था कि इससे सोसाइटी बदसूरत लगती है। सोसाइटी तो खूबसूरत लगने लगी, लेकिन झुग्गी टूटने से उसमें रहने वाली उनकी नौकरानी ने भी नौकरी छोड़ दी। फिर तो बाबू साहेब की बीवी ने बाबू साहेब की ऐसी फजीहत की कि सोसाइटी की खूबसूरती को वर्षों याद रखेंगे।
प्रिय रंजन झा

Thursday, March 23, 2006

काहे का वसंत?

अब तो होली भी हो ली और वसंत भी लगभग बीतने वाला है। ऐसे में हमने सोचा कि ई आकलन किया जाए कि अब मौसम या परब जैसन चीज लोग सब पर कौनो असर करती है कि नहीं। लोग कहते हैं कि होली दुश्मनों को दोस्त बना देती है और वसंत प्यार-मोहब्बत वाला मौसम है, लेकिन हम इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि ई सब खाली कहने-सुनने की बात है। फैक्ट तो ई है कि मौसम और परब-उरब अब आदमी सब पर कुछो असर नहीं करता है।

अब देखिए अपने खुराना जी को, ऐन होली के मौके पर भाइयों ने उनको बेआबरू करके पार्टी से विदा कर दिया। अब बताइए, उनके लिए होली किस काम की? होली काम आती, तो शीला दीक्षित और रामबाबू शर्मा अभियो एक-दूसरे का टांग नहीं खींच रहे होते। शीला तो रंग-अबीर के साथ रामबाबू की जेब में अपने साथ ऑस्टेलिया चलने के लिए एयर टिकट ठूंस रही होतीं। ऐसने अगर होली काम की होती, तो जया बच्चन अभियो यहां संसद भवन के गलियारे में घूम रही होतीं। कलाकार सब को ससम्मान अपना सदस्य बनाने वाले संसद से उन्हें बेगाना होकर निकलना नहीं पड़ता। रंग-अबीर से काम चलता, तो सब बैर-भाव भूलकर सोनिया अपने खुर्राट चेला सब से कहतीं--होली जैसे हंसने-खेलने वाले परब के तुरंत बाद किसी को रुलाना ठीक नहीं। चलो रहने दो इनको राज्यसभा सदस्य, जब हम दो ठो पोस्ट पर रह सकती हूं, तो ई क्यों नहीं रह सकतीं?

और तो और अगर होली काम की होती, तो दूध की नदी बहाने वाले वर्गीज कुरियन अभियो अमूल दूध पी रहे होते। होली के हसीन मौका पर अगर उ अमूल बटर से अपने विरोधियों को नहीं मना सके, तो नेताओं की बटरिंग करके तो कुर्सी बचा ही सकते थे! परब पर तो बटरिंग को 'बाई डिफाल्ट' वाजिब माना जाता है।

बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि असली होली तब होती थी, जब रंग-अबीर के साथ मानवता का जशन मनाया जाता था। तब राजा सब होली से पहले सैकड़ों कैदियों को छोड़ देते थे औरो लोग मौत का बदला लेना भी भूल जाते थे। अब तो कोर्ट औरो सरकार होलियो के दिन गरीब जनता पर बुलडोजर चलाने की पलानिंग करती है औरो जिस आदमी के स्वस्थ रहने के लिए पूरा देश प्रार्थना करता है, उस 'सदी के महानायक' को एक अदना व्यापारी के जैसे ऐन होली के मौका पर इनकम टैक्स ऑफिस का चक्कर लगाना पड़ता है। सच कहूं, तो हमको तो कभियो-कभियो चिंता होने लगती है कि देश एतना सुधर जाएगा, तो इसका भविष्य का होगा!

अब तनिक वसंत की महिमा देखिए। अगर वसंत प्यार-मोहब्बत का मौसम होता, तो रानी को भूला करके अभिषेक भला ऐश्वर्या की जनम कुंडली काहे मिलवा रहे होते? कम से कम अभिषेक ममता बनर्जी से तो सीख ले ही सकते थे। जैसन ममता ने कांगेस को बंगाल में और राजग को दिल्ली में चुनावी हनीमून के लिए परपोज किया, वैसने परपोजल अभिषेक रानी और ऐश्वर्या को भी दे सकते थे। वसंत में नया प्यार होने का मतलब ई थोड़े है कि आप गरमी में हुए प्यार को भूल जाइए? वैसे, हमको कांग्रेस सबसे ज्यादा वसंत विरोधी दिख रही है। अब देख लीजिए, अमर भैया का पूरा वसंत खराब करने का आरोप उसी पर लगा है कि नहीं। का है कि वसंत जैसन मौसम में उनके जैसन रसिया का अगर टेलिफोन टेप हो रहा है, तो प्यार-मोहब्बत को लेकर शिवसेना औरो कांग्रेस में कहां कौनो फरक रह जाता है।

और तो और अगर वसंत में एतना ही प्यार बरसता, तो वसंतोत्सव पर पाकिस्तान पहुंच करके जार्ज बुश मुशर्रफ को वर्दी उतारने के लिए गरिया काहे रहे होते? तब तो बसंती बयार में बौरा करके मुश बुश से कहते-- प्यारे इस डरेस में तुम खूब जमते हो, जनम भर इसे ही पहने रहो। वसंती बयार केतना फीका हो गया है, इसका परमाण ई भी है कि सचिन जैसे भगवान को उनके बम्बे वालों, मतलब 'मराठी मानूषों' ने भी ऐन वसंत के महीने में हूट कर दिया! अब ई तो वसंत की औकात हो गई है कि बीस-पच्चीस रन उस पर भारी पड़ रहा है। अब आप ही बताइए, काहे की होली और काहे का वसंत?
Article: PRJ

सभी ब्लॉगर मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं. हैरान न हों..... भारतीय पोस्टल सर्विस की तरह त्योहार बीतने के बाद पहुंच रहे शुभकामना संदेश की भांति आप तक मेरा ये संदेश देरी से नहीं पहुंचा है बल्कि मेरी अस्वस्थतता के चलते आप लोगों को बधाई देने में देरी हुई है. इसी कारण पिछले 15-20 दिनों से ब्लॉग पर कुछ कार्य नहीं हो पाया. उम्मीद है आप सभी की होली अच्छी बीती होगी. अब मैं भी मंडली में फिर क्रियाशील होने के लिए पूरी तरह स्वस्थ्य हूं.

आज आप सब के लिए प्रिय रंजन झा की कलम से वसंत व होली विशेष....

दिल्ली की होली

होली जैसा परब और दिल्ली जैसा शहर। यहां के अपार्टमेंट कल्चर में जहां कि ई पूछ के रंग लगाना पड़ता है कि कहीं सामने वाला बुरा न मान जाए, एडिटर के निरदेश पर हम निकल पड़े होली का तैयारी देखने।

सबसे पहले हम पहुंचे कुरताफाड़ होली खेलने वाले 'गरीबों के मसीहा' के पास। हमने पूछा अबकी बेर केतना कुरता फाड़ना है? नराज हो गए, 'धुर बुड़बक, जले पर नमक छिड़कते हो। मीसा की महतारी का राज खतम हो गया, बारह ठो लोगों का पेट चलाने के लिए अकेला एक रेलवे वाला राज बचा है। उस पर कुरता फाड़े, तो देह ढकने के लिए कुरता का तुम दोगे?'

ठीके कहा उन्होंने, पिछले साल तो बिहार जैसन भैंस तबेले में थी, जब चाहा दुह लिया, अब का बैल दूहेंगे! अब हम जाना तो रबड़ी जी के पास भी चाहते थे, लेकिन जब से उनने विधानसभा में सत्ता पक्ष को चप्पल दिखाया है, हम कोनो गुस्ताखी करने से डर रहा हूं।

गरीबों के मसीहा का ई हाल देखा, तो सोचा तनिक गरीबो सब को देख लिया जाए। सो पहुंच गए कलुआ की झुग्गी में। वहां हड्डी का ढेर लगा था। हमने पूछा होली ...? बोला, 'एकदम टंच। इससे बढ़िया होली का होगा... आलू के भाव मुर्गा बिक रहा है... सुबह से शाम तक खाता रहता हूं... सब कुपोषण महीने भर में दूर हो गया। बर्ड फलू बहुत सही चीज है हो, ई साल भर नहीं रह सकता?'

बर्ड फलू के नाम सुनते ही हमरा होश गुम हो गया। वहां से निकले, तो चंदरमोहन जी के कुत्ता सब पीछे पड़ गया। तनिए दूर पर घेर के लगा भूंकने, 'बेकारे भाग रहे थे, तुम्हरे जैसे निरीह आदमी को काटकर हम क्या करूंगा? हमलोग तो ई कह रहा हूं कि हमरी होली एकदम झकास है। सहिए कहता है आदमी सब कि एक दिन कुत्ता का दिन भी फिरता है। देख लो, विदेशी ही सही, लेकिन अपना एक भाई, उस समाधि तक तो पहुंचिए न गया, जहां तुम भी नहीं जा सकते। हमरा लिए ई गरव का बात है, इसलिए एतना खुश हूं कि भर रात 'फाग के राग' में बिना कोनो कारण के भूंकता रहता हूं।'

इससे पहले कि ऊ टांग उठाता हमको रंगने के लिए, हम भाग लिए। रास्ते में कुछ कामरेड दादा भांग वाला रसगुल्ला उड़ाते मिल गए। अजीब ई था कि एतना भांग खाने के बाद भी उनको नशा नहीं आ रहा था! फिर जला हमरे दिमाग का भुकभुकिया ...याद आया कि आजकल तो ई लोग सत्ता के नशा में हैं। एतना बड़ा नशा के सामने भला भांग कहां से असर करेगा! खैर, हमने पूछा होली... ? बोल पड़े, 'होली तो होली, हम तो दीवालियो अभिए मना रहा हूं। का है कि बिहार चुनाव का हीरो के जे राव चुनाव आयोग छोड़ चुके हैं। मतलब ई बंगाल में सत्ता के रास्ता का सबसे बड़का कांटा खुदे निकल गया। अब तो सत्ता तय है।'

उसी समय बगल से कोर्ट के एक ठो जज गुजर रहे थे। बेचारा कार से निकले, कमर झुका हुआ था। बोले, 'काम करते-करते कमर टूट गया। दिल्ली में सरकार तो कोर्ट से ही चलता है। आज जेसिका लाल का हत्यारा ढूंढो, कल पूरा दिल्ली का नाला साफ करवाओ ... दिल्ली में व्यवस्था कायम करने से फुर्सत मिले, तब न होली मनाएं।' तब तक वहां दिल्ली के कुछ नेता सब रंग-अबीर पोत के पहुंच गए। कहने लगे, 'जज तो बेकारे शहर के अंदेशे में काजी जी जैसे दुबले हो रहे हैं। भांग खाके होली मनाएंगे, सो नहीं, तो हमरी फटी में टांग अड़ाते हैं। हमरी होली टंच है काहे कि हमरा होटल अवैध निरमाण के बावजूद टूटा नहीं है औरो उ नेताजी का अवैध घर भी सुरक्षित है। होली का हाल तो बेचारा जनता सब से पूछो, जिनका आशियाना कोर्ट की किरपा से एमसीडी वालों ने ढहा दिया।'

अब बारी थी नई दिल्ली टीशन की। पेसेंजरों का एतना भीड़ कि देखके होश गुम हो गया। कोई विदेशी पतरकार देखता, तो अपने एडिटर को खबर करता--हम भारत में इतिहास का सबसे बड़ा माइग्रेशन (देशांतरण) देख रहा हूं! आप कहें, तो आठ कॉलम की खबर लिख दूं।

अब उसको क्या पता कि ई तो यहां हर होली-दिवाली का दृश्य है। हम पलेटफारम पर पहुंचे ही थे कि पीछे से आए लोगों के रेला ने उठा के हमको गाड़ी के बगल में पटक दिया। एक भाई साहब से पूछा कि कहां जा रहे हैं? बोला, 'टरेन में चढ़ गए तो अपने घर सहरसा औरो आपके कारण नहीं चढ़ पाए तो भाभी जी से होली खेलने आपके घर... पता नहीं कहां कहां से आ जाते हैं!' एतने में एक धक्का औरो लगा... अब हम बॉगी में हूं। निकलने का कोई रास्ता अब है नहीं, सो हमहूं जा रहा हूं अब घर। वैसे, एक बात बताऊं, बढ़िया ही हुआ कि हम टरेन में चढ़ गए। अब तो घर जाने का बहाना है, ऑफिस से तो वैसे छुट्टी नहिए मिलती!
Article: PRJ

Thursday, March 02, 2006

भूखल पेट हाई वे पर चलने का सुख

लीजिए, सरकार ने बजट-बजट खेल लिया। जैसन कबड्डी खेलते हैं, न वैसने। का कहे, खेल काहे कहते हैं? अरे भाई, जब खुदे सरकार उस बात पर कायम नहीं रहती, जो बजट में कहती है, तो ई खेले न हो गया। कबड्डी में तो तभियो एक बार लंगड़ी मारकर पिलयर आउट हो जाता है, यहां तो सरकार साल भर लंगड़ी मारती रहती है। आज ई टैक्स, कल उ टैक्स। अब देख लीजिए, इस बजट में सरकार ने कोयो नया टैक्स नहीं लगाया न, लेकिन एक महीना बाद जब नून-तेल खरीदने जाइएगा, तो पिताजी याद आ जाएंगे।

वैसे भी हमरा मानना है कि सरकार बेकारे बजट बनाती है। उसके हाथ में तो कुछो है नहीं, सब कुछ बाजार तय करता है, तो फिर काहे का बजट? कल्हे अगर डीजल-पेट्रोल वाली कंपनी अपना दाम बढ़ा दे, तो सरकारी बजट धरले रह जाएगा। नून-तेल से लेकर कपड़ा-लत्ता तक, सब कुछ महंगा। सरकार बनाती रहे बजट! अब जो चीज आपके हाथ में है ही नहीं, उसमें आप हाथ डाल रहे हैं, तो इसको खेले न कहिएगा। इस बजट के चलते तो हमरे साथ भी खेल होते-होते बच गया! का है कि बजट से पांच दिन पहले हमरे पंडित जी मिले, कहने लगे, 'जजमान, ई बजट पर पंडिताई पर सर्भिस टैक्स लगने वाला है। बजट से पहले ब्याह कर लीजिए, सस्ते में निबट जाइएगा, नहीं तो बाद में दक्षिणा महंगा बैठेगा।' हमने हड़बड़ाकर शादी नहीं की औरो संजोग देखिए कि पंडिताई पर टैक्स भी नहीं लगा। अब अगर पंडितजी की बात हम मान लेते, तो आज बजट के पहले कार खरीदने वालों की तरह बैठ के माथा धुन रहे होते कि नहीं।

हां, तो हम खेल की बात कर रहे थे। का है कि कबड्डी में एक ठो पिलयर को पकड़ने के लिए दस ठो पिलयर दौड़ता है, बजट में भी दस तरह का टैक्स औरो सरचार्ज वाला भूखल कुत्ता भूखल गरीब पर छोड़ दिया जाता है। मजबूत हैं तो बच जाइएगा, कमजोर हैं तो निगम बोध घाट है ही। खेल में कमजोरे लोग न हारता है, आप मरिए जाइएगा, तो कौन बड़का बात हो गया? सरकार के पास आपके पेट को देखने के अलावा भी बहुते काम है। उसको देश का चेहरा चमकाना है, सड़क, मॉल औरो पुल बनवाना है, उस पर कार चलवाना है, आपको विदेशी शराब औरो कोल्ड ड्रिंक पिलवाना है, चावल-दाल के बदला में आपको पास्ता औरो नूडल्स खिलवाना है, हर हाथ में कंप्यूटर औरो मोबाइल देना है...। ई सब होगा, तो आप भूखल पेट भी दुनिया में सिर उठा कर जी पाइएगा। गलोबल पीपुल कहलाइएगा। भूखल पेट हाई वे पर आप घिसट कर भी चल सकते हैं। इसका अपना सुख है। आम रोड पर तो एक डेग नहीं चल सकते, काहे कि उन पर रोड से बेसी गड्ढा होता है। अब तो आप बूझिए गए होंगे कि सरकार हाई वे पर आम सड़क से बेसी ध्यान काहे दे रही है।

का कहे खेती औरो कुटीर उदयोग को सब्सिडी चाहिए? काहे का सब्सिडी, भाई? खेती आप ठीक से करते नहीं औरो कुटीर उदयोग का जो मतलब आप समझते हैं, उसका तो भगवाने मालिक है! कुटीर उदयोग का मतलब घर में बैठकर छोटका-मोटका रोजगार करना होता है, लेकिन आप हैं कि घर में रहकर बच्चा पैदा करने को कुटीर उदयोग समझते हैं! अब अगर आपको यही कुटीर उदयोग चलाना है, तो सब्सिडी नहिए दिया जाए, इसी में फायदा है। वैसे, आपका भी क्या दोष दें, जब बेरोजगारी में घर में बैठल रहिएगा, तो कुछ न कुछ खुराफात तो कीजिएगा ही।

खैर, चिंता छोडि़ए। चिंता से चतुराई घटता है, इसलिए हम चिंता करता ही नहीं हूं। का है कि मुर्दा पर एक किलो लकड़ी डालिए कि एक टन लकड़ी, बेचारे पर कौन फरक पड़ने वाला है! हम तो वैसे भी कुपोषण के शिकार हूं, एक-आध सिरिंज खून सरकार औरो निकाल लेती है, तो क्या फरक पड़ेगा?
Article: PRJ