कभी अलविदा न कहना...

फिल्म की कहानी न तो प्यार जैसी भावना की सही व्याख्या करती प्रतीत हुई और न ही इसमें अनजाने हालातों में बने संबंधों को सही से दर्शाया गया. कहानी दो ऐसे युवा जोड़ों की है जो अपनी शादी में खुश नहीं हैं या यू कहें कि खुश रहना नहीं चाहतें. ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म देखकर अंत तक ये समझ नहीं आया कि सब कुछ होते हुए भी आप अपने साथी व परिवार से खुश क्यों नहीं हैं? खासकर तब जब आपने अपनी मर्जी से पार्टनर चुने हैं. फिल्म की शुरुआत रानी मुखर्जी और अभिषेक से शादी से होती है. अभिषेक रानी से प्यार करता है और रानी उसके प्यार को स्वीकार करने में 3 साल का समय लगाती है और उससे शादी करने के लिए हां करती है. शाहरुख और प्रीति कॉलेज के दिनों की दोस्ती को शादी में बदल लेते हैं.
जिस दिन रानी की शादी होती है उस दिन एक अजनबी (शाहरुख) मिलता है और वह उसे शादी करने की सलाह देता है जबकि रानी मुखर्जी मोहब्बत और शादी को लेकर असंमजस में है. (रोचक बात ये है कि उसे किसी से प्यार नहीं है फिर भी वह प्यार के इंतजार में है). उसने शादी को एक समझौता मान लिया है जबकि असल में ये समझौता था नहीं (कम से कम फिल्म में ऐसे हालात तो कहीं नहीं थे). दूसरी ओर शाहरुख के पास सब है मां, एक स्मार्ट सेक्सी बीवी, प्यारा सा बच्चा, एक हंसता-खेलता परिवार, फिर भी वह जिंदगी से कुछ और चाहते हैं.
एक ओर जहां शाहरुख एक हादसे के बाद अपने सपने को पूरा न कर पाने की भड़ास अपने परिवार पर निकालते हैं, तो दूसरी और शादी के कई साल बाद भी “अपने प्यार” की चाह में रानी पति अभिषेक से प्यार नहीं कर पाती. शाहरुख को अपनी पत्नी से शिकायत है कि उसे अपने परिवार से ज्यादा कैरियर की परवाह है. जबकि रानी को अपने पति का रोमांटिक स्वभाव प्यार करने के लिए मुनासिब नहीं लगता. वह किसी और प्यार की चाह में भटक रही हैं. और यहां से शुरु होता है दो अजनबियों (शाहरुख-रानी) के मिलने का और उनके बीच दोस्ती व तथाकथित प्यार का.
फिल्म में अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग है कि प्यार और मौत कभी भी आ सकते हैं. एक पुराना फेमस गाना भी है प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है.... पर इसका फिल्म से कहीं लेना देना नजर नहीं आया. फिर भी करण जौहर ने दिखाया कि प्यार हो गया तो मान लेना पड़ा कि चलो दोनों को प्यार हो गया. लेकिन फिर सालों से जिस प्यार की तलाश दोनों को थी उसका त्याग कर दोनों अपने परिवार को जोड़ने की मिसाल कायम करने के लिए अपने-अपने घर लौट आते हैं. पर देखिए यहां उनके प्यार व त्याग को समझने की बजाए अभिषेक और प्रीति उनसे रिशता तोड़ लेते हैं. अंतत: दोनों यह फैसला करते है कि जब उनकी यही सजा है कि उनका परिवार उनकी गलती माफ न करे और उन्हे सजा दे तो क्यों न ये सजा साथ में मिलकर काटी जाए.
तो ये था करण का जौरह... हां, एक बात तो पक्की तौर पर क्लीयर हो गई करण जौहर फिल्म निर्देशक से कहीं ज्यादा बेहतर एक मार्केटर हैं, जो बेहतर पैकेजिंग व मार्केटिंग से अपने हर प्रॉडक्ट को हिट करवा लेते हैं. कहने में कोई दोराय नहीं कि फिल्म के लोकेशंन्स शानदार हैं. एक बड़ा नाम व ब्रॉंड होने का फायदा है कि आप पैसे के बूते पर मैजिक क्रिएट करने की काबलियत तो रखते ही हैं. करण की फिल्मों की खासियत फॉरेन लोकेशंस, महंगे आउटफिट्स, नाच-गाने यहां भी उतने ही लुभावने हैं जितने उनकी दूसरी फिल्मों में थे.
Moral of the Kabhi Alwida Naa Kahna: हमारे पास जो है हम उसमे खुश नहीं रहते बल्कि सुख व खुशी की तलाश में भटकते रहते हैं. शायद इसी चाह ने हम लोगों को जिंदगी की छोटी-छोटी खुशियों से दूर कर दिया है.
4 Comments:
अभी रात को ही हम मिंया बीवी देख कर आए व आते हुए इसी पर चर्चा चल रही थी। हम भी आपकी राय से राय रखते हैं कि सभी कुछ होते हुए भी काहे का दुःख। पर फिर कुछ थीम हैं जो अगर सामने आते तो शायद क्नफ्युजन कम होता।
देव व रिया ने शादी की तो वह दोस्त थे और कॉलेज में एक दूसरे के लिए समय भी बहुत होता है। लेकिन देव की जिंदगी में दुर्घटना से आई कुंठा सब बदल देती है। कभी अर्श से फर्श पर आईए व जानिए।
दूसरी तरफ माया के सामने वही दुविधा थी जो दिल चाहता है कि प्रीति जिंटा के सामने थी। वह कैसे न कर दे। लेकिन यह जरुर मानता हूँ कि माया का शादी के बाद भी ऋषि को न अपनाना अजीब सा लगता है।
अब मैं तो फस चूका हूं। मेरी टिकट आ चूकी है, लेकिन सब इस फिल्म को बकवास बता रहे है। आशा है की पहेले से ही नेगेटीव दिमाग लेके जाउंगा, तो फिल्म पसंद भी आये!! मेरे 70 रुपये तो निकलेंगे ना??
जैसा कि जानते हैं, कभी अलविदा न कहना के शुरुआती दृश्यों में शाहरुख़ एक फ़ुटबॉलर बने हैं. जौहर ने सोचा इंग्लैंड के पूर्व कप्तान डेविड बेकम की नकल क्यों नहीं की जाए. बेकम अपने हाथ पर पत्नी का नाम हिंदी में गोदवाए हुए हैं- व्हिक्टोरिया. फ़िल्म में शाहरूख़ के हाथ पर अंग्रेज़ी में उकेर दिया गया है- Victory.
लेकिन बेकम की काबिलियत की नकल नहीं कर सके शाहरूख़, या नकल नहीं करा सके जौहर. मैदान पर बेकम जहाँ अपनी जादुई किक के लिए जाने जाते हैं, वहीं फ़िल्म में पेनाल्टी किक लेने के लिए शाहरूख़ हास्यास्पद रूप से लंबी दौड़ लगाते हैं.
संयोग देखिए, जब 11 अगस्त को कभी अलविदा न कहना रिलीज़ की गई, उसी दिन बेकम को इंग्लैंड की टीम से निकालने की घोषणा हुई. पिछले दशक भर से जिस बेकम के बिना इंग्लैंड टीम की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, उन्हें टीम में शामिल करना तक मुनासिब नहीं समझा गया. क्या किंग ख़ान कहे जाने वाले शाहरुख़ के लिए इसे एक अपशकुन माना जाए?
देखो भाई, इस करण जौहर की वजह से हम पतियों को अत्याचार सहना पड़ता हैं, ऐसी फिल्मे बनाता हैं जो झेली न जाए और बीवी को दिखानी भी पड़ती हैं.
इस करण जौहर का कुछ करना पड़ेगा. मोर्चा-वोर्चा से काम न चले तो किसी भाई से सम्पर्क करते हैं ;)
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