कहीं गूंजने न लगे मेरी मुम्बई...मेरी दिल्ली की आवाज़
अंधेर नगरी सभी हैं राजा पर तरुण जी का निठल्ला चिंतन पढ़ा. इस लेख ने दिन में घटे घटनाक्रम की याद ताजा कर दी, जो मन में एक प्रश्न छोड़ गया था. लेख पढ़कर यही अहसास हुआ कि चिंतन निठल्ला नहीं बेहद गंभीर हैं. तरुण जी ने अपने लेख में जिस पलायन की बात कही है उसका असर तो शहरों पर दिखने ही लगा है. महानगर की ओर पहुंचने वाली हर सड़क से न जाने कितने हजारों लोग रोजी-रोटी की तलाश में हर दिन, हर पल शहरों की ओर रुख कर रहे हैं. और रही बात अपना शहर, अपना राज्य को रोना रोने वालों की, तो वो अब सभी जगहों पर शुरु हो गया है. बस अंतर यह है कि मुम्बई में ये आवाज सुनी जा चुकी है, दूसरी जगहों पर अभी ये आवाज़ लोगों के दिलों में धीरे-धीरे घर कर रही है. संभव है दूसरे शहरों से इसकी गूंज भी जल्द ही सुनाई पड़ने लगे. ऐसा कहने के पीछे एक कारण यह भी है कि आज दिन में बस में एक छोटा सा वाक्या हुआ. हालांकि देखा जाए तो कहने के लिए ये वाक्या कुछ नहीं था, सिर्फ बस में सफर कर रही दो महिलाओं की आपसी बातचीत भर थी. फिर भी उसे सुनने के के बाद मन में ये प्रश्न उठा था कि क्या आज के युग में यह संभव है कि लोग अपने शहर, अपने राज्य और अपने देश तक सीमित रहें?
आज दोपहर जब मैं बस से ऑफिस आ रही थी तो कुछ स्डैंड बाद ही दो महिलाएं बस में सवार हुई. दोनों ही देखने में अध्यापिका लग रही थी. उनमें से एक महिला को मेरे साथ वाली सीट मिल गई और दूसरी पास ही खड़ी हो गई. वे दोनों घर जाने की जल्दी में थी इसलिए अपने ब्लूलाइन के ड्राइवर जी को जगह-जगह बस रोकने के लिए कोसती जा रही थी (वैसे ये काम तो दिल्ली की ब्लू लाइन बसों में सफर या यूं कहें suffer करने वाला यात्री दिन में एक बार करता ही है). खैर, बस का ड्राइवर यात्रियों की हड़बड़ी से बेखबर आदत के अनुसार बस को चलाता रहा. एक बस स्टॉप से जैसे ही बस चली कि कंडक्टर ने सड़क पर, जहां आस-पास कोई स्टैंड नहीं था, 8-10 लोगों को सामान से लदे-फदे देखते ही बस को हाथ मारकर सड़क के बीचों-बीच ही रुकवा दिया और उनसे पूछने लगा कि कहां जाना है. जवाब सुनते ही उसकी तो मानो लॉटरी लग गई. भाग्य से सवारियां उसी के रुट की थी. इतनी सारी सवारियों को बस में चढ़ाने में हुई देरी से मेरे पास बैठी आंटी का पारा कुछ और बढ़ गया. फिर उन्होंने पहले तो ड्राइवर कोसा और बाद में जिन सवारियों की वजह से देर हुई उन्हें देखकर कहा- बांग्लादेशी हैं. उसके बाद वे बोलीं सभी को दिल्ली में ही जगह मिल रही है.... आ जाओ दिल्ली में सब समा जाएंगे. बस उन्होंने ये कहा ही था कि उनकी महिला मित्र भी अपने नेपाली नौकर की गाथा लेकर शुरु हो गईं और बताने लगी कि कैसे उनका नौकर धीरे-धीरे अपने परिवार को यहां लेकर आ गया और किस तरह वे लोग दिल्ली के बिजली-पानी का मुफ्त इस्तेमाल कर रहे हैं वगैहर-वगैहर.
उनकी बातें सुनकर एक क्षण के लिए दिल्ली की बदहाली मेरे दिमाग में कौंधी और लगा कि बोल तो सही रही हैं दोनों. पर दूसरे ही पल ये ख्याल आया कि हम भी किसी राज्य से यहां आए हैं और हमारे देश के लोग भी दूसरी जगहों पर जा रहे हैं, कुछ वैधानिक तरीके से कुछ असंवैधानिक रुप से. किसी को कहीं आने-जाने से रोक पाना कैसे संभव है. सभी कामकाज और रोजगार की तलाश में यहां से वहां भाग रहे हैं.
दरअसल दिल्ली को दिनोंदिन बदहाल होते देख यहां के निवासी (मेरे जैसे, जो शायद खुद या उनके बाप-दादा किसी जमाने में दिल्ली में रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में आए थे) बाहरी क्षेत्रों से आने वालों को दोषी मानने लगे हैं. ये सही है कि महानगरों में बढ़ रही भीड़ अव्यवस्था बढ़ा रही है और रोज नई परेशानियां पैदा कर रही है, जिसे नियंत्रित किए जाने की सख्त जरुरत है. लेकिन दूसरा सच यह भी है कि आज के दौर में किसी को राज्य या देश की सीमाओं बांधना संभव नहीं है. सबसे ज्यादा जरुरी है कि गांवों और कस्बों में रोजगार के अवसर मुहैया कराने की, ताकि इस पर कुछ हद तक काबू पाया जा सके. बाकी दूसरे कारण भी हैं जिन्हें दूर किया जाना जरुरी है. नहीं तो वह दिन बहुत दूर नहीं कि मेरी मुम्बई, मेरी दिल्ली.... मेरा राज्य.... जैसी आवाज़े चारों ओर से सुनाई पड़ने लगे.
9 Comments:
अमेरिका जिनके बाप,परदादे आ के बसे थे (रेड ईंडियन्स का कत्लआम करक)े वे आज आऊटसोर्सिंग के नाम पर भारतीयों को खदेड़ने की बात करे तो इस पर क्या कहेंगे? भारतीय सरकार क्या कर सकती है?
उनकी महिला मित्र भी अपने नेपाली नौकर की गाथा लेकर शुरु हो गईं और बताने लगी कि कैसे उनका नौकर धीरे-धीरे अपने परिवार को यहां लेकर आ गया और किस तरह वे लोग दिल्ली के बिजली-पानी का मुफ्त इस्तेमाल कर रहे हैं वगैहर-वगैहर.
तो उन्होने नेपाली नौकर क्यों रखा? भारतीय क्यों नहीं रखा? ज़ाहिर सी बात है कि उन्होने ऐसा इसलिए किया क्योंकि नेपाली नौकर सस्ता पड़ा!! अगर उनसे कहा जाए कि वे अपने नेपाली नौकर को हटा कर भारतीय नौकर रख लें तो वह ऐसा नहीं करेंगी!! ऐसा ही अमेरिका में है, जहाँ स्थानीय लोग आऊटसोर्सिंग को लेकर बेकार ही हल्ला मचा रहे हैं। भई सभी को अपना लाभ देखने का अधिकार है, और जब कंपनियों को वही काम सस्ते में करने वाला मिलता है तो वे क्यों न उससे काम करवाएँ??
परन्तु समस्या है बढ़ती हुई आबादी और दूसरी समस्या है प्रशासन का आलस्य। पहले हर कोई मुम्बई की ओर भागता था रोज़गार के लिए, अब यही हाल दिल्ली का है। यदि किसी शहर आदि की आबादी ज़रूरत से भी ज्यादा बढ़ जाए तो वहाँ सुविधाएँ आदि जुटाना प्रशासन के लिए भी एक समस्या बन जाएगा, परन्तु हमारे नेता लोग तो सदैव दो ही समस्याओं से जूझते रहते हैं, कि अधिक घपले कर नोट कैसे बनाएँ और चुनाव कैसे जीतें। बाकि समस्याओं पर ध्यान देने की उन्हें फ़ुरसत ही नहीं। यदि प्रशासन कड़क रवैया अपनाए और बिजली पानी की चोरी पर रोक लगाना शुरू करे, तो ज्यादातर बाहर से आए बिहारी-नेपाली और अन्य लोग पलक झपकते ही पलायन कर जाएँगे, क्योंकि वे इतने खर्चे वहन नहीं कर पाएँगे!! पर पहले प्रशासन अपने निन्यानवें के फ़ेर से तो निकले!!
सुर, ताल से ताल मिलाने का शुक्रिया अर्थात मेरे लेख से अपनी बात शुरू करने का शुक्रिया, बस एक बात कहनी है कि ये "जी" सम्बोधन सुनीलजी और अनुपजी जैसे बुजर्गवार के लिये अच्छा लगता है।
धन्यवाद तरुण,
आगे से 'जी' के बारे में ध्यान रहेगा. ताल से ताल कितनी मिल पाई है, ये तो पता नहीं. क्योंकि आप सब से ताल मिलाना तो मेरे लिए काफी मुश्किल है. हां फिलहाल सीखने का क्रम जारी है... इसलिए आप लोगों को पढ़कर प्रयास कर रही हूं.
सुर, क्या आप किसी दिल्ली ब्लॉगर भेंटवार्ता में भाग लेती हैं? अभी हाल ही में एक हुई थी जो कि प्रत्येक मास के पहले रविवार को होती हैं। और एक और भी इस रविवार 29 जनवरी को कनॉट प्लेस में हो रही है। तो क्यों न आने का प्रयत्न करो? :)
हैलो अमित,
ब्लॉगिंग करते हुए अभी ज्यादा समय नहीं हुआ, दूसरे मुझे इन चीजों के बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं है. पर हां मेरी कोशिश होगी कि में आप लोगों के समूह में शामिल हो सकूं और आप सब से मिलकर ज्यादा से ज्यादा सीख सकूं.
अजी सीखने का क्या है, हम सब तो खुद लल्लू हैं!! ;)
पर यदि आ सके तो अवश्य आईएगा, अधिक जानकारी के लिए यहाँ देखें।
और वैसे भी, यह भेंटवार्ताएँ कोई सम्मेलन आदि थोड़े ही होती हैं, यह तो बस बिरादरी के लोगों से मिलने, उनके विचार जानने और अपने विचार प्रकट करने का मौका होता है। बस वैसे ही जैसे कुछ यार दोस्त एक बढ़िया शाम के लिए एकत्र होते हैं। :)
Deux textes sur Calcutta
1 - MISERE
(Voici une vision issue des flâneries étranges de ma pensée. Précisons que la rue où j'habite consiste en un escalier antique, dans le quartier historique du Vieux-Mans, sur des remparts gallo-romains.)
Un matin en sortant de chez moi, mon univers changea inexplicablement.
En ouvrant la porte donnant sur l'escalier public, je passai de l'ombre feutrée à la lumière brutale. Le choc. Dans la rue, un soleil cru, inhabituel. Chaleur suffocante, atmosphère dantesque. Partout, des maisons vétustes, délabrées, tristes, aux fenêtres cassées, opaques, aux briques noircies par la saleté.
L'escalier huppé était devenu de larges marches anonymes, brisées par endroits, jonchées de détritus, couvertes de poussière. Sans aucun intérêt architectural. D'un coup je conçus tout ce que sous-tendait ce lieu terne : le règne de la misère.
De cet escalier émanait une tristesse infinie, un désespoir affreux, une odeur de mort. Image fidèle d'un quartier calamiteux de Calcutta au dix-neuvième siècle. Le Mans était devenue une atroce Calcutta.
(Je parle bien sûr non pas de la flatteuse Calcutta, refuge des Arts et des Lettres, mais de l'autre, de l'ignoble Calcutta, asile d'une extrême, révoltante misère : célèbre image stéréotypée renvoyée au monde entier.)
Décor désespérant : là, l'électricité n'existait pas, n'avait jamais existé. Ni l'élémentaire confort citadin. J'étais dans une ville sans voitures, sans magasins, sans néons, sans FNAC, sans panneaux publicitaires, sans plus rien de ce qui était mes repères habituels. Tout avait disparu. C'était ça ma ville.
En haut de l'escalier, un spectre : un enfant portant des lambeaux de vêtements. Crasseux, pouilleux, avec un corps famélique... Misérable mais encore souriant. Un autre petit être décharné le suivait. Ils se mirent à jouer avec des cailloux, des morceaux de bois sales. En bas des marches, un vieux mendiant en train de mourir dans une banale indifférence. Des silhouettes en haillons passaient devant lui. A ses pieds, une sébile de bois. Vide.
Misère.
J'explorai la ville. Au lieu de la place centrale et ses beaux édifices, ses lumières, ses boutiques de luxe, ses halls nets, au lieu de tout cela, une cour des Miracles, un mouroir à ciel ouvert, une assemblée de lépreux, d'éclopés, de morts-vivants... Des gueux fantomatiques errant sous une insupportable chaleur, dans des odeurs incertaines. Charognes, tanneries, effluves de cuisine immonde ? Impossible de savoir.
Plus loin dans la rue Gambetta je passai devant une boulangerie sordide, un trou à rat. Je devinais tout à la simple vue des choses : pain fade au goût de sciure. Le seul pain qu'on pût manger dans cette ville. Avec des pommes aigres qu'il fallait cueillir sur les bords nauséeux de la Sarthe. Le pain et les pommes sauvages, uniques aliments de ce monde... Et ce pain, je ne pouvais le manger : trop pauvre je me découvrais. Cela dit, je savais confusément qu'on me laisserai prendre de ce pain, invendu, devenu dur comme du bois.
Misère. Misère. Misère.
Condamné à vivre dans ce monde pour le reste de ma vie, je regardais en face l'insupportable vérité. C'était inéluctable, irréversible, terrible comme un verdict tombé du Ciel. Impossible d'échapper au destin. Je devais me résoudre au sort, survenu du jour au lendemain sans aucune explication.
Accepter ma nouvelle condition était la seule chose concevable, conscient que le monde laissé derrière moi était définitivement perdu. Plus d'Internet, plus d'électricité, plus d'aliments variés, plus jamais. Plus de boissons fraîches diverses, ni de lit confortable, ni de sécurité... Plus rien de tout cela. Il me fallait désormais vivre comme un mendiant de Calcutta du dix-neuvième siècle dans un monde d'ordures, de fange, de faim, d'absolu dénuement.
Je mesurais l'horrible détresse de ma situation. Des millions d'hommes ayant vécu une semblable misère défilaient en mon esprit. J'étais devenu leur frère d'infortune. A la différence qu'eux n'avaient connu que ça toute leur vie. Moi, j'expérimentais l'état extrême de la pauvreté, après avoir connu l'état extrême de la richesse. C'était d'autant plus cruel que rien ne m'avait préparé à ce mystérieux bouleversement de mon existence : en ouvrant la porte de chez moi, j'étais passé de manière parfaitement incompréhensible d'un monde d'abondance, de nantis repus à un monde d'affamés, de malheur.
J'étais en train de vivre ce qu'avaient vécu ces millions de déshérités. La misère n'était plus une abstraction. J'étais là, à la place de ceux qui l'avaient vécu dans leur corps, leur âme. La misère, la vraie, l'authentique, celle endurée par des hommes de ce monde, de cette Terre, de cette Humanité, la misère éprouvée dans leur chair, dans leur vie quotidienne, la misère maudite...
Cette misère-là, je la vivais à cet instant et pour toujours, sans espoir de retour. Je la vivais dans cette ville qui était la mienne, dans cette cité décrépite qui s'appelait Le Mans, qui était concrète, pleine de crasse, de grisaille, de détresse, qui n'était ni un rêve ni une conception virtuelle, mais une ville d'hommes.
J'étais en enfer.
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2 - L'EVEIL
L'homme étendu à même le sol contemple la voûte étoilée, l'oeil noyé dans l'infini. Il sait le spectacle ultime. Tout à sa béatitude, il se laisse aller au vertige avec des sourires doux et désespérés. Le sentiment d'absolu qu'il ressent face aux étoiles éparpillées dans la nue est à la hauteur de sa détresse. A la vue des astres scintillant dans la nuit, une ivresse inédite l'envahit.
Résigné, il admire les étoiles, n'ayant plus rien d'autre à faire. Comme s'il attendait une porte ouvrant sur quelque éternité.
Depuis la boue séchée où il est allongé, la beauté du monde lui apparaît magistrale, suprême. Inénarrable. Cet homme a conscience d'être. Aussi s'attarde-t-il sur le ciel nocturne, l'âme de plus en plus légère, le corps de moins en moins présent. Puis il tourne la tête sur le côté. Sur le tas d'immondices où il agonise dans l'indifférence générale, il distingue son bras squelettique, sa main comme une poignée d'os, son flanc décharné, sa peau lépreuse. Déconnecté de ses étoiles, il reprend immédiatement contact avec l'abjecte réalité. Alors il décide ne ne plus voir que le ciel : dans un geste dérisoire et pathétique il détourne le regard du sol et le dirige définitivement vers le cosmos, le corps comme un haillon, l'âme comme une flamme.
C'est un sans-nom de Calcutta né dans la misère, fait pour la misère et crevant dans la misère. A quelle époque sommes-nous ? Quel âge a ce malheureux ? Peu importe ! C'est une ombre qui gît dans un coin de l'enfer terrestre parmi ses semblables passifs, sourds à sa souffrance. Cet homme qui a toujours connu la misère, le malheur, la faim, le désespoir accède ce soir à la beauté de manière fulgurante, la sensibilité exacerbée par l'approche de la mort. Le ventre vide, le corps malade, le moribond s'extasie sans bruit sur le mystère de cet univers où il a enduré son long calvaire de miséreux. Venu sur terre pour souffrir, il interroge longuement le ciel sur sa terrible destinée, magnifiquement réconforté par les lumières de la nuit cependant.
Puis dans un râle d'agonie pitoyable, atroce et presque insignifiant tant le monde qui l'entoure est insensible à son sort, l'inconnu au corps nu rend l'âme les yeux fixés sur le firmament.
Textes de RAPHAEL ZACHARIE DE IZARRA
raphael.de-izarra@wanadoo.fr
2, Escalier de la Grande Poterne
72000 Le Mans
FRANCE
Téléphone : 02 43 80 42 98
Freebox : 08 70 35 86 22
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