गणतंत्र नहीं, 'गन' तंत्र दिवस कहिए
आज दिल्ली में गणतंत्र दिवस मनाया गया। हालांकि जैसे यह मना, उससे तो मैं एकदम कन्फ्यूज गया हूं कि ई गणतंत्र दिवस था कि 'गन' तंत्र दिवस। हर तरफ बंदूकों का साया! ये कैसा गणतंत्र है भाई, जिसमें राष्ट्र गौरव का पर्व भी 'गन' के दम मनाया जाए? ये तो आतंकियों की 'गन' को रोकने के लिए पुलिस द्वारा 'गन' के बल पर 'गण' पर शासन की बात हो गई। मतलब गणतंत्र की एक दूसरा ही परिभाषा हो गई यह तो!
क्या बोले, यह सब सुरक्षा के लिए जरूरी है? हां, ठीक ही कहते हैं, लेकिन तब इतनी नौटंकी करने की जरूरत क्या है? हमारी मानिए, जो सब राजपथ पर करते हैं, उसके बदले में राष्ट्रपति भवन में झंडा फहराइए, कम से कम 26 जनवरी को जनता दिल्ली की सड़कों पर बेरोक-टोक घूमकर गणतंत्र दिवस का जश्न तो मना सकेगी। क्या है कि आप जिस 'गण' के लिए गणतंत्र दिवस मनाने की बात करते हैं, वह तो उस दिन सबसे ज्यादा पराधीन और भयभीत रहती है। बस बंद, मेट्रो बंद, न इंडिया गेट पर आइसक्रीम खा सकते हैं और न ही चांदनी चौक पर चाट, फिर काहे का 'गण' और कैसी गणतंत्र की ठाठ! यह तो वही बात हो गई कि दूल्हा अपने ब्याह में ही न जाए और बराती ब्याह की खुशी में नाच-नाचकर बेहोश होते रहे।
वैसे, यहां के लोग भी कम नहीं हैं। अगर खाली वे नौकर और किराएदार का वेरिफेकेशन करा ले, तो पुलिस की टेंशन आधी हो जाए, लेकिन सब अपने को रॉबर्ट बढ़ेरा ही न समझता है। सेक्युरेटी चेकिंग में भी शर्म आती है! पचास रुपए जिसकी पॉकेट में रहते हैं, वह बस में ऐसे संभलकर रहेगा, जैसे आसपास सब पॉकेटमार ही हो, लेकिन वही चचा जान और खाला जान अपने किराएदार के आतंकी साबित होने पर ऐसे आंख का बटन निकालेंगे, जैसे उनको आदमी पहचानने ही नहीं आता! रखेंगे 'सीधा-सादा' नेपाली नौकर, जो सस्ता होता है और चांय-चूं नहीं करता है, लेकिन पुलिस को नहीं बताएंगे। एक दिन जब वह 'टेढ़ा' हो जाएगा और टेंटुआ दबाकर सब माल ले जाएगा सीमापार, तब सब मिलके पुलिस का पोस्टमार्टम करेंगे!
... और पुलिस? पूछिए मत। 364 दिन अगर ड्यूटी को 'गोली देकर', वसूली में व्यस्त रहिएगा, तो 365वें दिन गोली-बंदूक के बल पर ही न शांति बनाइएगा, चाहे वह राष्ट्रीय पर्व ही क्यों न हो। कर्फ्यू लगाकर अगर आप कहते हैं कि '26 जनवरी शांति पूर्वक निबट गया', तो लानत है भाई आप पर।
... और नेता? हमारा तो मानना है कि यह पर्व बूटा सिंह जैसे 'राजनेताओं' को ज्यादा आनंद देता है, जो सुप्रीम कोर्ट में तो लोकतंत्र का खलनायक है, लेकिन कहता है मैं इस बार 26 जनवरी पर गांधी मैदान में 'सलामी लूंगा'। गौर कीजिएगा, उन्होंने यह नहीं कहा कि गांधी मैदान में तिरंगे को 'सलामी दूंगा'।
जय हो लोकतंत्र की! जय हो इसके खेवनहारों की!!
Article: PRJ
2 Comments:
बुटा सिंह जैसे लोग तो देश के लिए धब्बा है. शर्म तो इनमे है ही नही अपितु देश की सर्वोच्च अदालत के प्रति सम्मान भी नही है. खैर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी. ऐसे नही जाएंगे, बेआबरू होकर जाएंगे. रहा सवाल गणतंत्र दिवस परेड का, तो मै आपसे सहमत नही हु कि यह सब नही होना चाहिए. बंदुको के साये में ही सही. भारत को अपना शक्ति प्रदर्शन किसी विशिष्ट दिन करना ही चाहिए.
रही बात बूटा सिंह की, तो शायद आप लोग समाचार आदि नहीं सुनते? बूटा सिंह ने अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को दोपहर में ही भिजवा दिया था। वैसे एक बात है, यदि बूटा सिंह ने परेड से पहले इस्तीफ़ा दे दिया होता, तो आज सलामी कौन लेता? ;)
और बंदूकों के साये में मनाए जा रहे गणतंत्र दिवस के मुद्दे पर मैं सुर से सहमत हूँ, क्या यही हमारी आज़ादी है कि हम बिना बंदूकों के साए में चल फ़िर नहीं सकते? और वैसे भी, सारा साल तो ये सारी बंदूकें और इनको थामने वाले हाथ छुट्टी मनाते रहते हैं, पुलिस वालों के पास जो हथियार होते हैं वे सालों पुराने और बेकार हैं, और मैं उच्च अधिकारियों के पास जो चलने वाली पिस्तौलें है उनकी बात नहीं कर रहा, बल्कि आम सिपाहियों के पास जो हथियार होते हैं, उनकी बात कर रहा हूँ, बाबा आदम के ज़माने की राईफ़लें जो कि चलती कम हैं जाम ज्यादा होती हैं!!
गणतंत्र दिवस? यह तो मात्र दिखावा होता है, और वह भी इसलिए कि इतनी बड़ी तादाद में नेता लोग इकठ्ठे होते हैं, तो इसलिए उनकी सुरक्षा आवश्यक है, परन्तु जिस जनता के पैसे से उनके तवे पर रोटी सिकती है, उसके लिए तो कभी कोई सुरक्षा नहीं होती!!
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