Monday, October 31, 2005

दीपावली मंगलमय हो!


दीपों से उज्ज्वल हो आंगन तुम्हारा,
खुशियों से भर जाए जीवन तुम्हारा।


दीपों का पावन पर्व आप सभी के घर-आंगन में सुख, शान्ति और समृद्धि लाए. आप सभी को मेरी ओर से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।।

सभी के लिए खास है दीवाली

हिन्दू आस्था का प्रतीक माना जाने वाला दीवाली का त्योहार अन्य धर्मों में भी खास महत्व रखता है। सिखों के लिए भी यह त्योहार काफी महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि अमृतसर के गोल्डन टेंपल की नींव 1577 की दीवाली पर ही रखी गई थी। सिखों के छठे गुरु गुरु गोविंद सिंह जी को भी जहांगीर ने दीवाली के पर्व पर ही कैद से आजाद किया था, जिस वजह से इसे 'बंदी छोड़' दिवस भी कहा जाता है। जैन धर्म में दीवाली का पर्व कार्तिक महीने में तीन दिनों तक मनाया जाता है। धार्मिक पुस्तकों में दीवाली का पहला उल्लेख भगवान महावीर की निर्वाण तिथि के रूप में मिलता है। उनके शिष्य गांधार गौतम स्वामी को भी दीवाली के दिन ही पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

Saturday, October 29, 2005

त्योहारों की खुशी पर लगा ग्रहण

त्योहारों के मौसम का लुत्फ उठाते और दीवाली के मौके पर खरीदारी करने में व्यस्त दिल्लीवासियों की खुशी शनिवार को उस समय मातम में बदल गई, जब राजधानी के भीड़भाड़ वाले बाजारों में एक के बाद एक कई बम धमाके हो गए. (पढ़े खबर)

शनिवार को छुट्टी का दिन होने और दो दिन बाद दीवाली के कारण बाज़ारों में कुछ देर पहले तक जहां लोगों की भीड़ हंसी खुशी खरीदारी करने में व्यस्त थी, वहां अब डरे-सहमे से लोग घरों तक सुरक्षित पहुंचने के लिए बेताब नजर आ रहे हैं. कई लोग विस्फोटों की बलि चढ़ गए हैं और सैकड़ों घायल हो गए हैं. आतंक के काले साए ने एक बार फिर लोगों में दहशत फैलाकर दीवाली की खुशियों को ग्रहण लगा दिया है.

खो ना जाए ये हंसी

भोजन आधो पेट कर, दुगुनो पानी पी।
तिगुनो हंसी चौगुनो श्रम, बरस सवा सौ जी।।

ज्ञानी तो लाख टके की बात कह गए हैं, लेकिन आधुनिकता के इस दौर में इंसान जहां अपार सुख-सुविधाओं से लैस है, वहीं उसके पास एक चीज की दिनों दिन कमी होती जा रही है और वो है- हंसी. आजकल की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में तनाव इस कदर बढ़ गया है कि लोग मानो हंसना-मुस्कुराना ही भूल गए हैं. आलम यह है कि डिप्रेशन जैसी बीमारी जिसके बारे में कुछ साल पहले लोग जानते तक नहीं थे, आज एक गंभीर रूप धारण कर चुकी है. और तो और तनाव से बड़े-बूढ़े और बच्चे तो क्या अब जानवर भी अछूते नहीं हैं. इसे आधुनिकता की दौड़ में खुद को बनाए रखने की होड़ कहे या कुछ और, यह सच है कि अब व्यक्ति के चेहरे की स्वाभाविक मुस्कान कहीं खो सी गई है. आज हमें तनावमुक्त रहने और हंसने के लिए तमाम तरह के उपाय करने पड़ रहे है. यहां तक की तनावरहित व स्वस्थ बने रहने और खुलकर हंसने के लिए लाफ्टर क्लबों का सदस्य बनना पड़ रहा है. तकनीकी युग में बेशक आज हम मशीन बनकर रह गए हैं, लेकिन इस मशीन को चलायमान रखने के लिए ही सही हंसना जरूरी है. इसलिए हमेशा मुस्कुराते रहें...

Friday, October 28, 2005

कब बदलेगी छवि

सुबह उठकर जैसी ही अखबार उठाया तो दिल्ली पुलिस के कारनामे (नशे में महिला से छेड़छाड़) की खबर पढ़कर कॉलेज के दिनों में एक मित्र द्वारा सुनाई गई कहानी की याद ताजा हो आई. ये कहानी मेरी मित्र ने उस समय सुनाई थी जब कॉलेज ट्रिप पर हमारा ग्रुप रास्ता भटक गया और जैसे तैसे कर हम होटल वापस पहुंचे. हालांकि कहानी पूरी तरह याद नहीं पर उसकी छाप आज भी कहीं न कही मन में है. कहानी (जो भी टूटी-फूटी याद है) कुछ इस तरह थी कि एक मां अपनी बेटी से कहती है कि बेटी अगर कभी सुनसान राह से गुजरते हुए तुझे कुछ गुंडे मिले और आगे जाकर पुलिस मिले, तो मदद के लिए पुलिसवाले के पास जाने के बजाए वापस गुंडों के पास ही चले जाना. उस समय शायद इसकी गहराई उतनी समझ ना आई हो, पर आज लगता है कि रक्षक को भक्षक के रूप में देखने से तो वही अच्छा है. खैर पुलिस के कारनामे तो आए दिन देखने-सुनने को मिलते ही रहते है. ये एक कड़वी सच्चाई है कि लोग अंतिम विकल्प के तौर पर भी पुलिस के पास मदद मांगने के लिए जाने से डरते हैं या बचते है. पता नहीं 'सदैव आपके लिए, आपके साथ' का नारा देने वाली हमारी पुलिस कभी इसे हकीतत बना पाएगी या नही.

मुद्दा कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गया, पर क्या करें आजकल इतने रैप केस हो रहे हैं कि बस. अगली बार कुछ हल्का-फुल्का आप लोगों से शेयर करूंगी, त्योहारों का मौसम है उसे भी इंजॉय करना है आखिर.

Saturday, October 22, 2005

फोकस से बाहर इंडियन वुमन

इस बार 'पहेली' को भारत की ओर से ऑस्कर में प्रतिनिधित्व का मौका मिला है। काफी विवादास्पद रहे इस चयन को इस आधार पर सही बताया गया कि यह वास्तविक भारत को रिफ्लेक्ट करती है। लेकिन क्या यह सच है? कम से कम इसमें दिखाई गई भारतीय नारी आज की भारतीय नारी तो नहीं है। विजय नाथ देथा के उपन्यास, जिस पर यह फिल्म बनी है, की नायिका लच्छी के सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह और अपनी मजबूती को भारतीय नारियों ने दशकों पहले ही प्राप्त कर लिया है। अब तो उनके सेलिब्रेशन के दिन हैं- - आजादी के सांस लेने के, अंतरिक्ष में कदम रखने के, फाइटर विमान उड़ाने के, बड़ी-बड़ी कंपनियों के सुपर बॉस बनने के। हां, अगर बॉलिवुड की फिल्मों में भारतीय नारी के चरित्रों की बात की जाए, तो 'पहेली' वास्तव में उसका प्रतिनिधित्व करती है, क्योंकि इनकी नायिकाएं आज भी स्क्रिप्ट में 'पहेली' की नायिका से आगे नहीं बढ़ पाई है। आज भी 98 फीसदी फिल्मों की नायिकाएं घर संभालने वाली सुगृहिणी बनकर 'खुश' हैं।
वैसे, इसे विडंबना ही कहेंगे कि ऑस्कर के लिए लाइन में लगकर पिछड़ गईं बहुचर्चित फिल्में 'ब्लैक' और 'पेज थ्री' आज की भारतीय नारी को रिफ्लेक्ट करती हैं। ब्लैक की मिशेल और पेज थ्री की माधवी आज की भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करती हैं- - अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करती महिला, सामाजिक सरोकारों को पूरा करने का प्रयास करती महिला, अब तक जिंदगी की लबों से दूर रहे छुअन को महसूस करती महिला...। लेकिन आज की कितनी फिल्मों में ऐसी महिला नायिका बन पाती हैं? शायद पांच प्रतिशत में भी नहीं। यह वहीं बॉलिवुड है, जहां दशकों पहले समाज की सबसे कमजोर जीव मानी जाने वालीं महिलाओं पर मदर इंडिया, फूल बने अंगारे, छोटी सी बात, अंधा कानून, जख्मी औरत जैसी फिल्में बन चुकी हैं।
आज की 95 फीसदी फिल्मों में नायिका की भूमिका एक शोपीस से ज्यादा की नहीं होती। कभी वे नाटकीयता पैदा करने के लिए हीरो व विलन के बीच मासूम 'शिकार' बनती हैं, तो कभी प्यार को पाने के लिए समाज की बागी, कभी हीरो के बच्चे की मां बनने की ख्वाहिशें पालती हैं, तो कभी उनके घर संभालने की। जबकि आज गांव से लेकर महानगरों तक में महिलाओं की भूमिका काफी बदल चुकी है। यह कम अजीब बात नहीं है कि पर्दे पर प्यार के लिए समाज व परिवार से बगावत कर बैठने वाली महिलाएं जिंदगी की रेस में पुरुषों से काफी पीछे दिखती हैं। बॉलिवुड में ऐसी फिल्में कम ही बनती हैं, जो महिला प्रधान हो। वे किसी फिल्म में बड़ी बिजनेस वुमन नहीं बनतीं और न ही किसी बड़े परिवर्तन की अगुआ बनती हैं। पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच-गाना और पर्दे पर ग्लैमर बिखेरना ही उनका काम रह गया है। मॉड गर्लफ्रेंड की चाहत रखने वाला नायक अंत में विशुद्ध भारतीय पत्नी पर ही निसार होता है। कामकाजी महिला नायक की पसंद भी बनती है, तो दूसरी औरत ('बीवी नं वन' में मॉडल बनीं सुष्मिता सेन आदि) के रूप में।
अव्वल तो यह कि जिस उम्र में महिलाएं सफलता पाती हैं, बॉलिवुड की फिल्मों में उस उम्र के पात्र ही नहीं गढ़े जाते। फिल्मों में नायिकाओं का महत्व शादी तक ही सीमित कर दिया गया है! इस संदर्भ में एक वास्तविक वाकया को जानना दिलचस्प होगा। कभी दूरदर्शन के लिए हेमा मालिनी ने नृत्यांगना को लेकर 'नुपुर' सीरियल का निर्माण किया था, जिसके स्क्रिप्ट राइटर थे गुलजार। काफी पसंद किए गए इस सीरियल को नायिका की शादी होते ही बंद कर दिया गया। हालांकि खुद हेमा चाहती थीं कि सीरियल में नायिका की शादी की बाद की जिंदगी को भी दिखाया जाए, लेकिन दूरदर्शन के कुछ अधिकारी इस बात के लिए तैयार नहीं थे। तब एक अनौपचारिक बातचीत में गुलजार ने कहा था कि सीरियल को शादी के साथ हैपी एंडिंग पर खत्म कर देना ही अच्छा है। दरअसल, गुलजार का मतलब चाहे जो भी रहा है, लेकिन सच यही है कि आज की महिलाओं को उभारने वाली स्क्रिप्ट बॉलिवुड में नहीं लिखी जातीं।
दिक्कत यह है कि यह सब तब हो रहा है, जबकि यहां बड़ी संख्या में नई उम्र के निर्देशक फिल्में बना रहे हैं और वे काफी प्रोग्रेसिव माइंड के हैं। उनके पास नए आइडियाज हैं, जिन्हें पसंद भी किया जा रहा है, लेकिन उनकी सोच भी महिलाओं को लेकर एक लक्ष्मण रेखा को लांघती नहीं दिखती। हाल ही में रिलीज 'सलाम-नमस्ते' एकदम मॉडर्न सोच पर आधारित फिल्म है, लेकिन यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि लिव-टुगेदर पर बनी इस फिल्म की पृष्ठभूमि के लिए ऑस्टेलिया को चुना गया! जबकि भारतीय महानगरों में अब इस रिलेशनशिप को काफी हद तक स्वीकार किया जाने लगा है।
यह फिल्म बॉलिवुड की फिल्मों में महिलाओं की स्थिति को काफी हद तक स्पष्ट करती है। दरअसल, यह एक तथ्य है कि बॉलिवुड की फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग पुरुषों का है और निर्माता-निर्देशक इसी वर्ग को टारगेट कर फिल्में बनाता है। लेकिन यहां एक बात और गौर करने वाली है कि मल्टीप्लेक्सेज को ध्यान में रखकर बनने वाली तमाम फिल्मों में भी नायिकाएं घर संभालने वाली ही होती हैं, जबकि मल्टीप्लेकसेज में कामकाजी महिलाएं बड़ी संख्या में फिल्में देखने पहुंचती हैं और वहां फिल्में देखने वाले पुरुष भी मेट्रोसेक्सुअल मैन होते हैं। तो क्या कामकाजी महिलाएं और मेट्रोसेक्सुअल मैन भी भारतीय नारी की पारंपरिक छवि को ही पसंद करते हैं?
बहरहाल, महिला प्रधान फिल्में बनाते समय या फिर आज की भारतीय नारी की छवि वाली नायिका को गढ़ते समय दर्शकों की पसंद का खयाल रखना निर्माता-निर्देशकों की मजबूरी है। तो क्या दर्शकों की पसंद पर ही ऐसी फिल्में बनती हैं? यह अलग से बहस का मुद्दा है। हां, ऐसे में यह कहना जरूरी बेमानी है कि आज की फिल्में समाज को रिफ्लेक्ट करती हैं।
लेखः प्रिय रंजन झा

Thursday, October 20, 2005

हादसों का शहर

आजकल कोई दिन ऐसा नहीं बीत रहा, जिस दिन देश की राजधानी के अखबारों में बलात्कार की खबर पढ़ने को न मिल रही हो. अभी दो दिन पहले ही दिल्ली में नौकरी की तलाश में आई एक युवती के साथ चार लोगों के सामूहिक बलात्कार की खबर आई, तो आज पुजारी द्वारा एक महिला को नशीला पदार्थ खिलाकर बलात्कार किए जाने की खबर अखबार की सुर्खियों में हैं. पिछले सप्ताह भी दो बड़ी घटनाएं घटी थीं. आए दिन हो रही इन बलात्कार की घटनाओं ने शहर की नींद उड़ा रखी है खासकर महिलाओं की. (पढ़ेः राजधानी का एक दिन) दिल्ली जैसे महानगर में जहां स्कूल- कॉलेज जाने वाली युवतियों व कामकाजी महिलाओं की संख्या काफी ज्यादा है, ऐसे में दिनों-दिन असुक्षित बनते जा रहे शहर में महिलाएं एक अनजाने खौफ के साये में जीने के लिए मजबूर हैं.

Monday, October 17, 2005

खूब दौड़े दिल्लीवासी

Hutch Half Delhi Marathon 2005
आम दिनों में भारी ट्रेफिक से सराबोर रहने वाली दिल्ली की सड़कों पर रविवार की सुबह बिल्कुल अलग नजारा था. हच दिल्ली हाफ मैराथन में सीनियर सिटीजन और ग्रेट दिल्ली रन में हिस्सा लेने के लिए सुबह सवेरे ही लोग घरों से निकल पड़े और देखते ही देखते लोगों का हुजूम सड़कों पर दौड़ता हुआ नजर आ रहा था. क्या खास, क्या आम सभी मिलकर एकसाथ दौड़े. बच्चे व युवा तो खासे उत्साहित थे ही, पर बुजुगों के जोश ने तो युवाओं को भी पीछे छोड़ दिया. सीनियर सिटीजन दौड़ में पूरे जोशो-खरोश से दौड़ने वाले बुजुर्गों को देखकर हर कोई हैरान था. सीनियर सिटीजंस की स्पोर्टिंग स्प्रिट देखकर उन लोगों में भी जोश आ गया जो दौड़ में हिस्सा नहीं ले रहे थे. लोगों का उत्साह बढ़ाने के लिए आए फिल्मी सितारे, मशहुर खिलाड़ी और विदेशों से मैराथन में हिस्सा लेने आए खिलाड़ी दिल्लीवासियों के उत्साह को देखकर सभी अभिभूत हो गए. मानना होगा हाफ मैराथन में फुल उत्साह से दौड़े दिल्लीवासी.

Saturday, October 15, 2005

एक नई शुरुआत!!!

दोस्तों, शुभचिंतकों की प्रेरणा और मां दुर्गा के आर्शीवाद से आज एक नए काम की शुरुआत कर रही हूं. दरअसल पत्रकारिता जगत में ऑनलाइन माध्यम से जुड़े होने के कारण इंटरनेट और इस मीडिया से जुड़ी नई चीजों के बारे में जानने व सीखने की इच्छा ने भी ब्लॉग जगत से जुड़ने के लिए प्रेरित किया है. उम्मीद है ब्लॉगर मित्रों से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा. बाकी रही बात दिल्ली ब्लॉग की तो देखते है ये कोशिश क्या रंग लाती है.