Saturday, October 22, 2005

फोकस से बाहर इंडियन वुमन

इस बार 'पहेली' को भारत की ओर से ऑस्कर में प्रतिनिधित्व का मौका मिला है। काफी विवादास्पद रहे इस चयन को इस आधार पर सही बताया गया कि यह वास्तविक भारत को रिफ्लेक्ट करती है। लेकिन क्या यह सच है? कम से कम इसमें दिखाई गई भारतीय नारी आज की भारतीय नारी तो नहीं है। विजय नाथ देथा के उपन्यास, जिस पर यह फिल्म बनी है, की नायिका लच्छी के सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह और अपनी मजबूती को भारतीय नारियों ने दशकों पहले ही प्राप्त कर लिया है। अब तो उनके सेलिब्रेशन के दिन हैं- - आजादी के सांस लेने के, अंतरिक्ष में कदम रखने के, फाइटर विमान उड़ाने के, बड़ी-बड़ी कंपनियों के सुपर बॉस बनने के। हां, अगर बॉलिवुड की फिल्मों में भारतीय नारी के चरित्रों की बात की जाए, तो 'पहेली' वास्तव में उसका प्रतिनिधित्व करती है, क्योंकि इनकी नायिकाएं आज भी स्क्रिप्ट में 'पहेली' की नायिका से आगे नहीं बढ़ पाई है। आज भी 98 फीसदी फिल्मों की नायिकाएं घर संभालने वाली सुगृहिणी बनकर 'खुश' हैं।
वैसे, इसे विडंबना ही कहेंगे कि ऑस्कर के लिए लाइन में लगकर पिछड़ गईं बहुचर्चित फिल्में 'ब्लैक' और 'पेज थ्री' आज की भारतीय नारी को रिफ्लेक्ट करती हैं। ब्लैक की मिशेल और पेज थ्री की माधवी आज की भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करती हैं- - अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करती महिला, सामाजिक सरोकारों को पूरा करने का प्रयास करती महिला, अब तक जिंदगी की लबों से दूर रहे छुअन को महसूस करती महिला...। लेकिन आज की कितनी फिल्मों में ऐसी महिला नायिका बन पाती हैं? शायद पांच प्रतिशत में भी नहीं। यह वहीं बॉलिवुड है, जहां दशकों पहले समाज की सबसे कमजोर जीव मानी जाने वालीं महिलाओं पर मदर इंडिया, फूल बने अंगारे, छोटी सी बात, अंधा कानून, जख्मी औरत जैसी फिल्में बन चुकी हैं।
आज की 95 फीसदी फिल्मों में नायिका की भूमिका एक शोपीस से ज्यादा की नहीं होती। कभी वे नाटकीयता पैदा करने के लिए हीरो व विलन के बीच मासूम 'शिकार' बनती हैं, तो कभी प्यार को पाने के लिए समाज की बागी, कभी हीरो के बच्चे की मां बनने की ख्वाहिशें पालती हैं, तो कभी उनके घर संभालने की। जबकि आज गांव से लेकर महानगरों तक में महिलाओं की भूमिका काफी बदल चुकी है। यह कम अजीब बात नहीं है कि पर्दे पर प्यार के लिए समाज व परिवार से बगावत कर बैठने वाली महिलाएं जिंदगी की रेस में पुरुषों से काफी पीछे दिखती हैं। बॉलिवुड में ऐसी फिल्में कम ही बनती हैं, जो महिला प्रधान हो। वे किसी फिल्म में बड़ी बिजनेस वुमन नहीं बनतीं और न ही किसी बड़े परिवर्तन की अगुआ बनती हैं। पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच-गाना और पर्दे पर ग्लैमर बिखेरना ही उनका काम रह गया है। मॉड गर्लफ्रेंड की चाहत रखने वाला नायक अंत में विशुद्ध भारतीय पत्नी पर ही निसार होता है। कामकाजी महिला नायक की पसंद भी बनती है, तो दूसरी औरत ('बीवी नं वन' में मॉडल बनीं सुष्मिता सेन आदि) के रूप में।
अव्वल तो यह कि जिस उम्र में महिलाएं सफलता पाती हैं, बॉलिवुड की फिल्मों में उस उम्र के पात्र ही नहीं गढ़े जाते। फिल्मों में नायिकाओं का महत्व शादी तक ही सीमित कर दिया गया है! इस संदर्भ में एक वास्तविक वाकया को जानना दिलचस्प होगा। कभी दूरदर्शन के लिए हेमा मालिनी ने नृत्यांगना को लेकर 'नुपुर' सीरियल का निर्माण किया था, जिसके स्क्रिप्ट राइटर थे गुलजार। काफी पसंद किए गए इस सीरियल को नायिका की शादी होते ही बंद कर दिया गया। हालांकि खुद हेमा चाहती थीं कि सीरियल में नायिका की शादी की बाद की जिंदगी को भी दिखाया जाए, लेकिन दूरदर्शन के कुछ अधिकारी इस बात के लिए तैयार नहीं थे। तब एक अनौपचारिक बातचीत में गुलजार ने कहा था कि सीरियल को शादी के साथ हैपी एंडिंग पर खत्म कर देना ही अच्छा है। दरअसल, गुलजार का मतलब चाहे जो भी रहा है, लेकिन सच यही है कि आज की महिलाओं को उभारने वाली स्क्रिप्ट बॉलिवुड में नहीं लिखी जातीं।
दिक्कत यह है कि यह सब तब हो रहा है, जबकि यहां बड़ी संख्या में नई उम्र के निर्देशक फिल्में बना रहे हैं और वे काफी प्रोग्रेसिव माइंड के हैं। उनके पास नए आइडियाज हैं, जिन्हें पसंद भी किया जा रहा है, लेकिन उनकी सोच भी महिलाओं को लेकर एक लक्ष्मण रेखा को लांघती नहीं दिखती। हाल ही में रिलीज 'सलाम-नमस्ते' एकदम मॉडर्न सोच पर आधारित फिल्म है, लेकिन यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि लिव-टुगेदर पर बनी इस फिल्म की पृष्ठभूमि के लिए ऑस्टेलिया को चुना गया! जबकि भारतीय महानगरों में अब इस रिलेशनशिप को काफी हद तक स्वीकार किया जाने लगा है।
यह फिल्म बॉलिवुड की फिल्मों में महिलाओं की स्थिति को काफी हद तक स्पष्ट करती है। दरअसल, यह एक तथ्य है कि बॉलिवुड की फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग पुरुषों का है और निर्माता-निर्देशक इसी वर्ग को टारगेट कर फिल्में बनाता है। लेकिन यहां एक बात और गौर करने वाली है कि मल्टीप्लेक्सेज को ध्यान में रखकर बनने वाली तमाम फिल्मों में भी नायिकाएं घर संभालने वाली ही होती हैं, जबकि मल्टीप्लेकसेज में कामकाजी महिलाएं बड़ी संख्या में फिल्में देखने पहुंचती हैं और वहां फिल्में देखने वाले पुरुष भी मेट्रोसेक्सुअल मैन होते हैं। तो क्या कामकाजी महिलाएं और मेट्रोसेक्सुअल मैन भी भारतीय नारी की पारंपरिक छवि को ही पसंद करते हैं?
बहरहाल, महिला प्रधान फिल्में बनाते समय या फिर आज की भारतीय नारी की छवि वाली नायिका को गढ़ते समय दर्शकों की पसंद का खयाल रखना निर्माता-निर्देशकों की मजबूरी है। तो क्या दर्शकों की पसंद पर ही ऐसी फिल्में बनती हैं? यह अलग से बहस का मुद्दा है। हां, ऐसे में यह कहना जरूरी बेमानी है कि आज की फिल्में समाज को रिफ्लेक्ट करती हैं।
लेखः प्रिय रंजन झा

2 Comments:

At 9:27 PM, Blogger Kanishk | कनिष्क said...

The basic problem is that movies do not depict real life..all they show is reel life. So, in anycase, whatever is shown in movies from one culture or country should not be taken as a symbol of that country. e.g, I have been in US for more than 2 yrs and I havent seen any car-chase or gunfight or lovemaking couples in cars as shown in hollywood movies.
Worse is when such movies are nominated for awards on the pretext that they show the truth. ahh come'on...gimmea break ...!!

 
At 8:47 AM, Blogger Tarun said...

movies doesn't depict real life that's why I think these hollywood producers make (reel) movies based on real life....u name it there is plenty of such movie...Last oscar winner is one of the example.

Aur yehan ke prime time serials me khoon-kharabe-sex (murder-sex) ke siva kuch nahi hota. haan I agree kuch ek purane programs ko chorkar...

Indian women ki film me dasha ke baare me sahi likha hai...ye mehaj ek show-piece ke siva kuch nahi.

 

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