Friday, October 28, 2005

कब बदलेगी छवि

सुबह उठकर जैसी ही अखबार उठाया तो दिल्ली पुलिस के कारनामे (नशे में महिला से छेड़छाड़) की खबर पढ़कर कॉलेज के दिनों में एक मित्र द्वारा सुनाई गई कहानी की याद ताजा हो आई. ये कहानी मेरी मित्र ने उस समय सुनाई थी जब कॉलेज ट्रिप पर हमारा ग्रुप रास्ता भटक गया और जैसे तैसे कर हम होटल वापस पहुंचे. हालांकि कहानी पूरी तरह याद नहीं पर उसकी छाप आज भी कहीं न कही मन में है. कहानी (जो भी टूटी-फूटी याद है) कुछ इस तरह थी कि एक मां अपनी बेटी से कहती है कि बेटी अगर कभी सुनसान राह से गुजरते हुए तुझे कुछ गुंडे मिले और आगे जाकर पुलिस मिले, तो मदद के लिए पुलिसवाले के पास जाने के बजाए वापस गुंडों के पास ही चले जाना. उस समय शायद इसकी गहराई उतनी समझ ना आई हो, पर आज लगता है कि रक्षक को भक्षक के रूप में देखने से तो वही अच्छा है. खैर पुलिस के कारनामे तो आए दिन देखने-सुनने को मिलते ही रहते है. ये एक कड़वी सच्चाई है कि लोग अंतिम विकल्प के तौर पर भी पुलिस के पास मदद मांगने के लिए जाने से डरते हैं या बचते है. पता नहीं 'सदैव आपके लिए, आपके साथ' का नारा देने वाली हमारी पुलिस कभी इसे हकीतत बना पाएगी या नही.

मुद्दा कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गया, पर क्या करें आजकल इतने रैप केस हो रहे हैं कि बस. अगली बार कुछ हल्का-फुल्का आप लोगों से शेयर करूंगी, त्योहारों का मौसम है उसे भी इंजॉय करना है आखिर.

1 Comments:

At 9:23 PM, Blogger Tarun said...

inka slogan hi sab kuch kehne ko kaafi hai - 'सदैव आपके लिए, आपके साथ'
Tabhi to ye sab ho reha hai. Agar ye saath na rahe to kuch na ho. Reha sawal aapke title ka...to in polish walon se to bhagwan bhi bachata phir reha hai.

 

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