Wednesday, November 15, 2006

कहीं कहानियों में न सिमट जाए सर्कस

सूचना क्रांति के इस दौर ने भले ही विकास के नए आयाम दिखाए हैं लेकिन सर्कस उद्योग पर इसकी गहरी मार पड़ी है और मनोरंजन के इस बरसों पुराने आकर्षण का भविष्य अंधकारमय है.

एक समय था जब सर्कस का दल किसी शहर में पहुंचता था तो शहर में धूम मच जाती थी. आज यह सब सपने जैसा लगता है क्योंकि अब तो सर्कस का मेला कब लग कर चला जाता है किसी को पता ही नहीं चलता.

लोगों के पास सर्कस के लिए समय ही नहीं है. जिनके पास समय है वे अपने अपने घरों में बैठ कर टीवी देखना कंप्यूटर पर गेम खेलना पसंद करते हैं. सर्कस के मुख्य आकर्षण जानवर होते हुआ करते थे. लेकिन वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के चलते सर्कस में जानवरों के इस्तेमाल पर रोक लग गई और धीरे-धीरे इनका आकर्षण भी खत्म हो गया.

सूचना क्रांति के इस युग में सर्कस जैसे पारंपरिक मनोरंजन के साधनों का भविष्य अंधकारमय है और संभव है कि आने वाले समय में मनोरंजन के इस साधन का अस्तित्व ही न रहे.

Wednesday, November 08, 2006

साइबर नेटवर्किंग का बढ़ता नशा

राकेश के लिए यह समय सेलिब्रेट करने का है। आखिर ऑरकुट पर उन्हें अपने मित्रों की वह पूरी टोली मिल गई, जिससे वह पंद्रह साल पहले हाई स्कूल छोड़ने के बाद बिछुड़ गए थे। आज उनका कोई दोस्त स्वीडन में रह रहा है, तो कोई फिनलैंड तो कोई रांची में, लेकिन अब वे हर रोज मिलते हैं और अपनी बातें शेयर करने व एक-दूसरे की टांग भी खींचने जैसी मस्ती करते रहते हैं। साइबर स्पेस उनके लिए उनके स्कूल के दिनों का खेल का मैदान हो गया है, जहां सब मिलते हैं और पूरी मस्ती करते हैं। अपने हाई स्कूल के नाम पर उनकी कम्यूनिटी है और इसकी बदौलत उनके पूरी तरह खत्म हो गए संबंधों को एक नया जीवन मिला है।

सच तो यह है कि राकेश जैसे लोगों की संख्या अपने देश में तेजी से बढ़ रही है, जो ऑनलाइन सोशल नेटवर्किंग जैसे कॉन्सेप्ट के दीवाने हैं। साइबर स्पेस दोस्तों को तलाशने और पुरानी दोस्ती को फिर से जीवित करने की जगह ही नहीं बन रही है, बल्कि इस पर अंतरंग संबंधों की भी एक वर्चुअल दुनिया तैयार हो रही है। अब सिंगल्स इसके जरिए साथी की तलाश कर रहे हैं, तो यह एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स का माध्यम भी बनता जा रहा है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से इसके साफ संकेत मिलते हैं कि भारत में इंटरनेट इंफिडेलिटी बड़े पैमाने पर अपने पैर पसार रही है और ट्रेडिशनल रिलेशनशिप की जगह अब साइबर रिलेशनशिप का चलन तेजी पकड़ सकता है।

दरअसल, दोस्ती की वर्चुअल दुनिया बनने के साथ-साथ, बहुत से लोगों के लिए साइबर स्पेस मैरिज और संबंधों में आ गए ठहराव व बोरियत से उबरने का एक बेहतर माध्यम भी है। गायत्री चंद्रा इंटरनेट की एडिक्ट हैं। वह बहुत से ऑनलाइन कम्यूनिटीज की सदस्य है। वह कहती हैं, 'मुझे महसूस हुआ कि बहुत से मुद्दे ऐसे हैं, जिनके बारे में मैं अपने पति से बात नहीं कर सकती। इसलिए मैंने बात करने के लिए ऑनलाइन फ्रेंड्स का सहारा लिया। आज मैं बहुत से लोगों के बेहद करीब हूं और उनसे मेरी रोज ऑनलाइन बात होती है। मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं उनसे बिना बात किए रह ही नहीं सकती। मेरा एक ऑनलाइन फ्रेंड तो मेरे बारे में मेरे पति से भी बेहतर जानता है। बावजूद इसके, सच यही है कि उसके साथ मेरे संबंध वर्चुअल स्पेस में ही हैं और मैं उन्हें ऐसे ही रहने देना चाहती हूं।

साइबर स्पेस पर पनपते संबंधों के बारे में काउंसिलर प्राची गुप्ता कहती हैं, 'ऐसे संबंध इतने गहरे बन सकते हैं कि आप उन्हें अवॉइड नहीं कर सके। कई मामलों में तो यह भावनात्मक संबंधों और सेक्सुअल रिलेशनशिप में भी बदल सकते हैं। ऐसे संबंध आसानी से एडिक्शन का रूप ले लेते हैं। ऐसे में साइबर स्पेस में संबंधों का जाल फैलाने से पहले थोड़ी सतर्कता से उसकी परिणति के बारे में भी सोच लें।'

वैसे, ऐसे साइट्स सिर्फ पर्सनल रिलेशंस को ही मजबूती नहीं दे रहे, बल्कि जानकारी, नौकरी और बिजनेस के भी नए दरवाजे खोल रहे हैं। एक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि ऐसी साइटों पर बने कम्यूनिटीज ने लोगों को अपनी जरूरत के लोगों को तलाशने में मदद की है, फिर चाहे वह बिजनेस की बात हो या फिर नई-नई जानकारियां जुटाने की। राहुल सिंह एक ऐसे कम्यूनिटी के सदस्य हैं, जो इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का बिजनेस करने वाले युवाओं का है। इस कम्यूनिटी से जुड़ना उनके लिए इतना फायदेमंद रहा है कि वह इसके दीवाने हैं। यहां उन्हें ऐसे युवाओं से बातें शेयर करने का मौका मिला, जिन्होंने काफी स्ट्रगल के बाद इस क्षेत्र में अपने आपको स्थापित किया है। वह रोज उन अनुभवी लोगों के संपर्क में रहते हैं और उनके सलाह पर उन्होंने अपने बिजनेस में खासा प्रगति की है।'

राहुल भले ही सोशल नेटवर्किंग साइट्स के दीवाने हैं, लेकिन इसके आलोचकों की भी संख्या कम नहीं। एक एमएनसी में की पोस्ट पर काम करने वाली राखी सिंह कहती हैं, 'मैं तो इन सबसे परेशान हूं। हमारे यहां स्टाफ ऑफिस का ज्यादातर समय काम करने के बजाय इन्हीं साइटों को सर्फ करते रहते हैं। यह मुफ्त में लोगों का काफी समय खा रहा है, ऐसा समय, जिसे आप अपनी बेहतरी में लगा सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि यह जानकारियों का खजाना है। अगर मुझे किसी जगह या चीज की जानकारी चाहिए होगी, तो मैं शायद ही किसी मित्र से पूछूंगी, क्योंकि जब तक वह मुझे उसके बारे में ई-मेल करेगा, तब तक गुगल जैसे सर्च इंजनों के सहारे मैं सारी जानकारियां जुटा लुंगी।'

बहरहाल, भले ही हर किसी की मान्यता ऐसी साइटों को लेकर अलग-अलग हों, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इनके प्रति लोगों की दीवानगी लगातार बढ़ रही है और भविष्य में ऐसी साइटों की बाढ़ आने वाली है।

(एनबीटी में प्रकाशित लेख)

Friday, November 03, 2006

टू मच क्रिकेट ने किया बोर

लगता है टू मच क्रिकेट से लोग बोर हो गए हैं। इसका अंदाजा चैंपियंस ट्रॉफी के दौरान सूने पड़े मैदानों से लगाया जा सकता है। पूरे साल क्रिकेट ही क्रिकेट ने वन डे का चार्म खत्म कर डाला है। कहते हैं हर चीज अपनी ही सीमा में अच्छी लगती है। क्रिकेट में पैसों की बौछार ने दुनिया की सभी टीमों को इतना व्यस्त कर डाला है कि लोग रोज-रोज वही चेहरे देखते-देखते अब ऊब गए हैं। मिनी वर्ल्ड कप मानी जाने वाली चैंपियंस ट्रॉफी में दुनिया के धुरंधर खिलाड़ियों के होने के बावजूद जो जुनून क्रिकेट के इस दीवाने देश में होना चाहिए था वह नदारद रहा। दर्शकों के मैदान पर न होने के कई कारण हैं।

जो लोग मैदान में नजर नहीं आते वे घर पर टीवी पर मैच का मजा लेते हैं। बड़े स्क्रीन के आ जाने पर अब मैदान में जाने से लोग कतराते हैं और घर पर बैठ कर ही इसका मजा लेना बेहतर समझते हैं। बड़ी वजह टीम इंडिया के घटिया प्रदर्शन की भी है। क्रिकेट फैन्स जिन खिलाड़ियों को अपने पलकों पर बैठाते थे और जिन्हें गॉड मानते थे उनके प्रति अब वह श्रद्धा खत्म हो गई है। लगातार फ्लॉप शो के बाद जिन्हें हम अपना हीरो मानते थे अब वे जीरो बन गए हैं।

चैंपियंस ट्रॉफी का आयोजन ऐसे समय रखा गया जब कई त्यौहार एक साथ आए जैसे दशहरा, दीपावली और ईद। मौसम के हिसाब से भी यह समय ठीक नहीं है। इस सीजन में कई बीमारियों भी होती हैं जिस कारण कई लोग मैच नहीं देख पाते। टीम इंडिया में अच्छे ऑलराउंडर्स की कमी ने भी पकवान फीका बना डाला है। पहले जैसा थ्रिल लोगों को देखने को नहीं मिल रहा। पहले कई ऐसे करामाती ऑलराउंडर्स रहते थे जो मैच को अपनी झोली में डाल लेते थे। क्रिकेट का माहौल बनाने वाली फाइटिंग स्प्रिट की कमी महसूस की जा रही है हमारी टीम में। बॉलिंग पिचों ने ताबड़तोड़ बैटिंग का मजा ही खत्म कर डाला है।

लोगों की व्यस्तता भी एक कारण है। लोग अपने-अपने कामकाज में इतने बिजी हैं कि क्रिकेट के लिए टाइम ही नहीं निकाल पाते। महंगी टिकटें भी दर्शकों को मैदान से दूर रख रही हैं। फिर मैच देखने जाओ तो कई तरह का सामना करना पड़ता है। लम्बी-लम्बी कतारों में लगना और कड़े सुरक्षा बंदोबस्त के बीच कई तरह के टेस्ट में से गुजरना पड़ता है। कई बार डंडे भी खाने पड़ते हैं।

यह पहली बार नहीं हो रहा है अभी तक हुए पहले चार आयोजन भी दर्शकों के लिहाज से फीके रहे। आईसीसी को इस और ध्यान देना होगा ताकि यह मिनी वर्ल्ड कप दर्शकों को अपनी ओर खींच सके।