Wednesday, September 16, 2009

हैपी वर्किंग पेरंट्स डे

आज वर्किंग पेरंट्स डे पर कई साल पहली पढ़ी कुछ लाइनें याद आ रही हैं और इनका गहरा मतलब आज ज्यादा अच्छी तरह महसूस कर पा रही हूं....

अगर मुझे बच्चे को दोबारा पालना हो,
तो मैं उंगुलियों पर ज्यादा पेंट करूंगी और उंगली कम दिखाऊंगी।
मैं सुधारूंगी कम और जुडूंगी ज्यादा।
मैं अपनी आंखें घड़ी से हटा लूंगी और अपनी आंखें उसी पर गड़ाए रखूंगी।
मैं जानने की कम परवाह करूंगी और उसकी ज्यादा परवाह करूंगी।
मैं ज्यादा घूमूंगी और ज्यादा पतंगें उडाऊंगी।
मैं कम गंभीर रहूंगी और खेलूंगी ज्यादा।
मैं मैदानों में ज्यादा भागूंगी और ज्यादा सितारों को देखूंगी।
मैं डांटूंगी कम और गले ज्यादा लगाऊंगी।
मैं कम बार कठोर रहूंगी और ज्यादा बार तारीफ करूंगी।
मैं शक्ति के प्रेम के बारे में कम सिखलाऊंगी,
और प्रेम की शक्ति के बारे में ज्यादा सिखाऊंगी।
(डियोन लूमैन्स)

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Tuesday, July 28, 2009

आगरा से परिचित कराती वेबसाइट आगराटुडे.इन

आगरा शहर को बरसों पहले छोड़कर विदेशों में जा बसे यहां के अप्रवासी भारतीयों के लिए एक वेबसाइट आगराटुडे.इन लॉन्च की गई। संपादक ब्रज खंडेलवाल ने बताया, 'इस वेबसाइट पर आगरा से जुड़ी सभी सूचनाएं मुहैया कराई जाएंगी। इसके जरिए शहर और आस-पास के इलाकों से जुड़े सभी पर्यावरणीय, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों को उठाने का प्रयास किया जाएगा। इसके अलावा दूसरी अन्य गतिविधियों को भी पाठकों के लिए अद्यतन प्रस्तुत किया जाएगा।

इस मौके पर आयोजित गोष्ठी में वेब पत्रकार पीयूष पांडेय ने कहा कि ऑन लाइन पत्रकारिता तेजी से अपना मुकाम बनाती जा रही है और भविष्य में परंपरागत मीडिया को इससे कड़ी चुनौती मिलेगी।

मीडियाभारती वेब सॉल्युशन और मीडियाभारती.कॉम के संपादक धर्मेंद्र कुमार ने कहा कि भविष्य न केवल ऑनलाइन पत्रकारिता का ही है बल्कि पर्यावरण और बढ़ते प्रदूषण जैसे दूसरे मुद्दों को कारगर ढंग से उठाने के लिए भी ये सबसे अच्छा, सस्ता और टिकाऊ माध्यम है।

होटल गोवर्धन में हुए उद्घाटन समारोह में आगरा विश्वविद्यालय के कंप्यूटर संस्थान के डॉ. संदीप जैन, केंद्रीय हिंदी संस्थान के चंद्रकांत त्रिपाठी और ब्रज मंडल हेरिटेज कंजर्वेशन सोसायटी के अध्यक्ष सुरेंद्र शर्मा, आईटी विशेषज्ञ विकास दिनकर पंडित और शहर के कई जानेमाने लोग इस मौके पर मौजूद थे।

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Tuesday, September 02, 2008

आखिर कैसे करें बाढ़ पीड़तों की मदद

धर्मेंद्र कुमार
इन लोगों में अपना प्रतिबिम्ब देख रहे शेष भारत के लोग सहायता के लिए बढ़ कर आगे आ रहे हैं। लेकिन, अपने बचे-खुचे सामान और छोटे-छोटे बच्चों को कंधों पर लादे बूढ़े और जवानों की मार्मिक तस्वीरें देखकर सहायता को आगे बढ़ने वाले ये हाथ अचानक रुक गए।

मदद के लिए लोग लगातार आगे आ रहे हैं लेकिन कैसे करें...यह नहीं पता। शनिवार को एनडीटीवी खबर कार्यालय में कम से कम सौ से ज्यादा आने वाली फोन काल सिर्फ इस बात से संबंधित थीं कि राहत सामग्री में अपना योगदान कैसे करें।

हमने खोजे राहत सामग्री में जुटे लोगों के फोन नंबर। नंबर मिले पर फोन नहीं लगा। तो हमने रुख किया इंटरनेट का। सीधे पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री की वेबसाइट http://cm.bih.nic.in पर जहां अफसरों का गुणगान और मुख्यमंत्री के भाषणों का संग्रह तो मिला पर मुख्यमंत्री राहत कोष में योगदान कैसे करें, यह पता नहीं चल सका। मुख्यमंत्री राहत कोष के लिंक पर पहुंचे, लेकिन वहां हमें मिला अब तक राहत कोष से लाभान्वित लोगों की सूची। यानी कि राजनीतिक लाभ लेने की पूरी तैयारी। सवाल अभी भी जिंदा कि रोहत कोष में योगदान कैसे करें...

यहां से निराश होकर हम पहुंचे देश के प्रधानमंत्री की वेबसाइट http://pmindia.nic.in पर। यहां भी कोष का यशोगान तो मिला, लेकिन अपना योगदान कैसे करें, यह सवाल अनुत्तरित। यहां कुछ फोन नंबर जरूर मिले और बैंकों की शाखाओं के पते भी, जो शाम को बंद हो चुकी थीं। हमें ख्याल आया राहत कोष में ऑनलाइन धन जमा कराने का। लेकिन अजीब बात यह कि कोष में ऑनलाइन धन जमा करने की व्यवस्था वेबसाइट पर नहीं मिली।

फिर भी हमारी खोज जारी रही। हम पहुंचे भारतीय दूतावास की साइट http://www.indianembassy.org पर। यहां मिली हमें ऑनलाइन योगदान देने की जानकारी। लेकिन दुर्भाग्य ने साथ यहां भी नहीं छोड़ा। ऑनलाइन सहायता राशि देने के लिए आगे बढ़े तो एक फॉर्म का प्रिंट लेने का निर्देश दिया गया जिसे भर कर अगले दिन प्रधानमंत्री कार्यालय में जमा करना है।
अंतत: साबित यह हुआ कि देश को आईटी के क्षेत्र में सिरमौर बना देने के दावों के बीच सरकार के कर्ता-धर्ताओं के पास इतना समय नहीं है कि वे देश के नागरिकों को यह जानकारी दे सकें कि अगर वे बाढ़ पीड़ितों की मदद करना चाहें तो कभी भी और कहीं से भी, कैसे करें...
ndtvkhabar से साभार

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Friday, August 08, 2008

गलती किसकी?

धर्मेंद्र कुमार

गौर कीजिए! यह सक्रियता तीन-चार दिन पहले, या कहिए हर रोज दिखाई जाती या यूं कहें कि यह 'रेड अलर्ट' रोज रहे तो क्या बेंगलुरु और अहमदाबाद जैसी घटनाओं से बचा नहीं जा सकता था! उजड़ गए 100 से ज्यादा परिवारों को बचाया नहीं जा सकता था! किसका दोष है यह... प्रशासन का, पुलिस का, नेताओं का या कोई और ही है इसका जिम्मेदार! समझ नहीं आता, किसके सिर थोपें इसका दोष! जब कोई घटना घट जाती है तो हममें न जाने कहां से यह अतिरिक्त फुर्ती आ जाती है। हमारे पुलिसकर्मी शारीरिक रूप से पूरी तरह फिट हो जाते हैं! अधिकारियों द्वारा पर्याप्त संख्या में पुलिसकर्मियों का न होने का दावा न जाने कहां फुर्र हो जाता है! एक पल में सब कुछ ठीक-ठाक, कसी हुई व्यवस्था हम आम नागरिकों के सामने दिखने लगती है। यही नहीं, प्रशासन की आम जनता से भी और ज्यादा सहयोगी होने की उम्मीद भी बलवती हो जाती है।

सरकार से अगर कोई उम्मीद करें, तो अब 'जांच' होगी। सभी राजनीतिक दलों के नेता एक-दूसरे को दोषी ठहराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। अपने 'कपड़े' और 'जूते' बचाते हुए विस्फोट प्रभावितों से मिलने जाने का दौर शुरू होगा। कुछ नेताओं ने अपने आकाओं की 'शह' पर यह अभियान शुरू भी कर दिया है। सत्तापक्ष सभी सुविधाएं मुहैया कराने का दावा करेगा तो विपक्ष प्रभावितों की ठीक से देखभाल न करने का आरोप लगाएगा। देश की जनता को यह पूरी 'प्रक्रिया' रट गई है, लेकिन हमारे नेताओं को 'अपडेट' होने में न जाने कितना वक्त लगेगा।

अब बात हमारी खुफिया एजेंसियों की 'सतर्कता' की। अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट बेंगलुरु बम धमाकों के अगले ही दिन हुए। बेंगलुरु धमाकों के बाद पूरे देश में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया था। फिर कैसे अहमदाबाद में एक-दो नहीं, 18 बम जगह-जगह रख दिए गए? उस समय क्या हमारी जांच एजेंसियां कान में तेल डालकर सो रही थीं। इतने सारे बम धमाकों के पीछे कोई एक-दो आदमी तो होंगे नहीं। फिर उनकी कारगुजारियों से ये एजेंसियां कैसे बेखबर रह गईं? 2002 के दंगों के बाद से ही गुजरात और नरेंद्र मोदी दोनों आतंकवादियों के निशाने पर हैं, इसके बावजूद खुफिया एजेंसियों की यह चूक कई बड़े सवाल खड़े करती है। देश में आतंकवादी खतरों से निपटने के लिए हमें सबसे पहले इन एजेंसियों को ही जवाबदेह बनाना पड़ेगा... और इसकी शुरुआत अब हो ही जानी चाहिए, क्योंकि देरी का मतलब है किसी और शहर में धमाकों की खबर सुनने को हम तैयार रहें...

बेंगलुरु, अहमदाबाद या सूरत ही नहीं, देश के हर शहर, हर जगह लगभग यही नजारा है। अभी दो दिन पहले, पड़ोस में एक कार के चोरी हो जाने के बाद रातोंरात कालोनी के बाहर गेट लग गया। रात को ऑफिस से घर लौटे तो पुलिस ने अपनी जीप पीछे लगा दी। घर के सामने गाड़ी से उतरते ही सवालों की झड़ी भी लगा दी। कहां से आ रहे हो? कौन हो? किसकी गाड़ी है? इतनी रात गए कौन सा ऑफिस खुलता है? पूरा परिचय और रात में घर से बाहर होने की वजह बता देने के बाद घर में घुस सका। कोई एतराज नहीं, इस पूछताछ से! लेकिन काश! यह चुस्ती-फुर्ती रोज हो तो कैसा रहे! फिर, न शायद बम फटेंगे, न मोहल्ले में चोरियां होंगी... और तब शायद पुलिस की पूछताछ भी प्यारी लगेगी।
स्रोत- NDTV Khabar.com

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