Friday, December 16, 2005

दिलवालों की ई दिल्ली!!!

कहते हैं कि दिल्ली दिल वालों की है। मतलब ई कि आप दिल्ली आए नहीं कि आपका दिल बड़ा हो गया। ई सच है कि झूठ हमको पता नहीं, लेकिन ऐसा लोग कहते हैं। वैसे, हमको तो लगता है कि यहां के लोगों की सोच बड़ी है या चलिए आप इहो कह सकते हैं कि यहां के लोग सोचते बड़े-बड़े हैं।
मेरा एगो मित्र है। तनि हसोड़ किसम का है। विशवास कीजिए, दिल्ली के बारे में उसकी सोच सुनके आप भी हैरान रह जाइएगा। उ दिल्ली के बड़प्पन के बारे में जो महसूस करता है, उ हम आपको बता रहे हैं- -

दिल्ली का दिल देखना हो, तो यहां का व्याकरण ज्ञान देखिए। लिंग भेद का यहां कोनो जगह नहीं। नर-मादा सब ईश्वर की संतान है, तो भेद काहे का? तभिए तो इतना बड़ा शहर, लेकिन लोग कहते हैं- - मेरी दिल्ली, प्यारी दिल्ली। अब हमरे समझ में यह नहीं आता कि जब लखनऊ 'प्यारा' शहर है और चंडीगढ़ भी 'प्यारा', तो दिल्ली 'प्यारी' कहां से हो गई?

यहां का हमरा एक दोस्त कहता है कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हम स्त्रियों का बहुत सम्मान करते हैं। हां, शायद ऐसा ही होगा। अब ई बात अलग है कि यहां मादा भ्रूण हत्या वाला क्लीनिक गली-गली में भरल पड़ल है। वैसे, ठीके है, ई तो सब 'सभ्य' समाज में आजकल हो रहा है। दिल्लियो में हो रहा है, तो कौन खराब है। हमरा दोस्त कहता है, 'स्त्रियों का सम्मान देखना हो, तो यहां के बसों में जाकर देखिए। बस में बाएं तरफ का सम्मानजनक स्थान उनके लिए आरक्षित होता है।' हां, उ ठीके कहता है। वैसे, कभी-कभार आपको ई अफसोस हो सकता है कि ई सम्मान इसी चार-पांच सीट तक है, इससे एको सीट बेसी पर नहीं। अगर कोनो बस में इन सीटों से ज्यादा महिलाएं आ जाएं और भीड़ ठसमठस हो, तो फिर उनके 'सम्मान' के लिए जो हाथ और कुहनियां 'आगे' आती हैं, उसका भगवाने मालिक है।

का है कि दिल्लीवालों का ई मामले में भी जवाब नहीं है कि लोग किसी चीज को छोटा नहीं समझते और बड़े के 'बड़ापन' को सम्मान देने में अपना बड़प्पन समझते हैं। दरअसल, ओ संख्या बल से बहुत डरते हैं और उसका पूरा-पूरा सम्मान करते हैं। क्या कीजिएगा, राजनीति का सबसे बड़ा अखाड़ा संसद यहीं है न, इसलिए संख्या बल का एतना खयाल रखना पड़ता है। यहां के लोग कहेंगे- - मैं तो शहादरे जा रहा था..... मैंने छोले-भटूरे खाए हैं और दही-भल्ले भी। गनीमत है कि चावले नहीं खाते और दूधे नहीं पीते।

ई बड़ा सोच इनकमो के मामला में है। लोग दिन-रात कमाने में लगे रहते हैं, पैसा बनाते रहते हैं, न परिवार को देखते हैं और न समाज को। लोग एतना मशगूल रहते हैं अपने काम में कि चड्ढ़ा साहब की मैयत में जाने के लिए दो पड़ोसी नहीं मिलते। और दूनंबरा पैसा में भी ऐही सोच है। सीबीआई जहीं हाथ डालती हैं, वहीं से लाखों-करोड़ों की नकदी मिल जाती है उसको। यही नहीं, लोगों का दिल इहो मामला में बड़ा है कि ई सब बात से 'नोट छापने वाले' की सामाजिक सेहत पर कोनो असर नहीं पड़ता। दुनिया सुबह-सुबह पेपर पढ़कर उनकी कारगुजारियों पर अफसोस व रोष जता रही होती है, तो उ महाशय पड़ोसी और ओकर कुत्ता के साथ अपना कुत्ता टहला रहे होते हैं। अब कहिए, एतना बड़ा दिल है, तभिये न दिल्ली दिल वालों का कहलाता है।

2 Comments:

At 10:41 PM, Blogger SHASHI SINGH said...

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At 10:47 PM, Blogger SHASHI SINGH said...

झाजी!
ऊ का है न कि हमहूं कुछ दिन दिल्ली का हवा पानी खाये थे, त आपके विचार पढ़के मन कुछ कुलबुलाने लगा कि दिलवालों की दिल्ली के बारे में हमहूं कुछ बकें...

तो ये रही हमारी बकवास

दिल्ली में

दिल की दिल में रह गयी दिल्ली में
दिल ने सोचा था दिल की करेंगे
दिल आज भी है अपना
दिल्ली भी हो गयी अपनी
न जाने कहां गये वो दिलवाले
जिनकी भरोसे चले आये हम दिल्ली में
ख़ुद का हो गर भरोसा
ठहर! इस दिल्ली में
वरना वजुद खाक में मिल जाये
ख़ुद तक को ख़बर न हो दिल्ली में

शशि सिंह
मुम्बई ब्लॉग
भोजपुरिया ब्लॉग

 

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